शनिवार, 4 नवंबर 2017

धर्मध्‍वजा पर छाती चौड़ी करने वालों का एक सच यह भी

 आज कर्तिक पूर्णिमा भी है, देव दीपावली भी और गुरू नानक जयंती भी...इस शुभ दिन पर धर्म की सर्वाधिक बातें की जाऐंगी मगर कुछ सच ऐसे हैं जो इन बड़ी बड़ी बातों में दबे रह जाऐंगे।

यूं भी धर्म जब तक किताबों में रहता है तब तक वह बहुत आकर्षित करता है परंतु जब इसी धर्म को निबाहने की बारी आती है तो हम अपने-अपने तरीकों से इससे भाग जाने के रास्‍ते तलाशने लगते हैं।

आज दो खबरों ने दिल कचोटा-
पहली खबर है गिरिराज गोवर्द्धन समेत ब्रज के सभी मंदिरों में भगवान  सर्दी के व्‍यंजन 'सुहाग-सोंठ' खाऐंगे, मेवाओं से लदे-फदे भगवान 'डिजायनर  व विदेशी रजाइयां ओढ़ेंगे' और इसी के ठीक उलट दूसरी खबर एक गौशाला  से आई है कि ब्रज की इस गौशाला में हर रोज लगभग तीन गायें भूख के  कारण बीमार पड़ रही हैं और अपने प्राण त्‍याग रही हैं।

गोवर्द्धन पूजा और गौचारण करके जिस कृष्‍ण ने गौसेवा को सर्वाधिक उच्‍च स्‍थान दिलाया, आज उसी की नगरी की गायें भूख से तड़प कर मर रही हैं, वह भी तब जब उसे भोग सुहाग-सौंठ और मेवाओं का लगाया जा रहा हो।

बहरहाल इन दोनों खबरों से उन अखाड़ेबाजों का सच स्‍वयमेव सामने आ गया है, जो बात-बात पर धर्म की ध्‍वजा लेकर कूद पड़ते हैं।

दरअसल, धर्म के इस बाजार में अशक्‍त व देशी निठल्‍ली गायें अपनी  कीमत नहीं रखतीं। इनकी दुर्दशा को किसी भी तरह भुनाया नहीं जा  सकता। धर्म के इसी 'व्‍यापारिक रूप' के वो सच भी हमारे सामने हैं जो  धर्म को खास लिबास, खास प्रतीक चिन्‍हों और खास जीवनशैली से बांधकर  उन लोगों के सामने परोसते हैं जो इन्‍हें ही धर्म और ईश्‍वर समझ इनके  ''भक्‍त'' हो लेते हैं। ये अलग बात है कि 'आपसदारी के तहत' वो भक्‍त भी  इनके व्‍यापार का ही हिस्‍सा होते हैं।

ब्रज के धार्मिक बाजार का हाल तो यह है कि पिछले डेढ़-दो दशक से हर  गली-कुंजगली में तीन-चार भागवतवक्‍ता उग चुके हैं, छप्‍पन भोगों से  ''पुण्‍य'' कमाया जा रहा है, फूलबंगला व भांति-भांति की रसोइयों के  आयोजनों से धर्म की नगरी में अरबों तक का व्‍यापार रोज हो रहा है।  बची-खुची कसर अब प्रदेश सरकार द्वारा इसे कृष्‍णा सर्किट के तौर पर  विकसित करने के लिएआई अनेक छोटी-बड़ी योजनाओं ने पूरी कर दी है।
बाजार के इस राजनैतिक व धार्मिक कोण की कीमत अब ब्रज की उन  गौशालाओं को चुकानी पड़ रही है जो न तो किसी ''खास भगवत वक्‍ता'' से  अनुदान पाती हैं और ना ही जिनके संरक्षक ''एनआरआई या सेठगण हैं''।

ये एनआरआई, सेठगण और बड़े ओहदेदार भक्‍त किसी बड़े भागवतवक्‍ता  को दान (इनकम टैक्स की 80 जी धारा के तहत तय की गई अनुबंध  राशि) देना ज्‍यादा अच्‍छा समझते हैं, इसके अलावा भक्‍ति-प्रदर्शन के लिए  आए दिन 56 भोगों का आयोजन और ऋतुओं के अनुसार भगवान को  लगाए जाने वाले स्‍पेशल भोगों को स्‍पांसर करना ज्‍यादा फायदे का सौदा  होता है। बजाय इसके कि ये सभी समृद्ध लोग अशक्‍त व मरती हुई गायों  के लिए आगे आऐं।

किसी भी धार्मिक स्‍थान से दूर रहने वालों के लिए उस पवित्र स्‍थान का  महत्‍व ज्‍यादा होता है बनिस्‍बत उनके जो स्‍वयं इन पवित्र स्‍थानों के वाशिंदे  हैं क्‍योंकि जीते जी मक्‍खी कोई नहीं निगल सकता और धर्मस्‍थानों के इन  धार्मिकजनों के कृत्‍यों को कम से कम मैं तो इसी श्रेणी में रखती हूं। 

आएदिन गायों को लेकर अनेक नीति-राजनीति-धर्मनीति तय की जाती हैं  उनका बखान किया जाता है मगर ज़मीनी हकीकत इससे बहुत अलग है।

बेहतर होगा कि सच के इस पक्ष से भी सिर्फ सरकारें ही नहीं, हमको भी  रुबरू होने की आवश्‍यकता है वरना कसीदों का क्‍या है...गाय तो हमारी  माता है ही और मूर्तियों को पूजना हमारी परंपरा...इन जुमलों पर ना जाने  कितने आश्रम फाइवस्‍टार हो गए और ना जाने कितने बाबा अरबपति...।

-अलकनंदा सिंह

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