शनिवार, 4 मार्च 2017

फणीश्वर नाथ रेणु का जन्‍मदिन आज: 'मैला आंचल' लिखकर रेणु ने रेणु की ही बात कही


रेणु का मतलब होता है बालू- रेत- रेती सो अपने नाम को सार्थक करते  वो धूल से सने रस्‍ते, गली गांव चौबारे से निकलती खुश्‍बुऐं, दामन को  बच बचाकर चलती बतकहियों और हकीकतों को समेटते रहे। जी हां !  'इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन  भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं  निकल पाया' कहने वाले फणीश्‍वर नाथ रेणु का आज जन्‍मदिन है।

उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु ने 'घर की बोली' की आंचलिक पहचान  को जनजन तक पैठ बनाने में जितनी विशेषज्ञता दिखाई वह उनके  शब्‍दों से आम जन को जोड़ती है। किसी भी जन समुदाय की  भलाई-बुराई को अत्‍यधिक प्रमाणिक उसकी अपनी बोली में रचे गए  साहित्‍य से ही तो आसानी से किया जा सकता है।

'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी  सजीवता और मानवीय संवेदनाओं - दृश्यों को चित्रित करने के लिए  उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे  उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। इतना ही नहीं 'रेणु' ने मिथक,  लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी  रचनाओं में स्थान दिया है।


उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व  व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक  औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति तो बन ही गया वरन  अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है।

अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें पद्मश्री से सम्मानित  किया गया।

उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम'  को हममें से कोई भी नहीं भूल सकता। राजकपूर, वहीदा रहमान की  इस 'तीसरी क़सम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके  निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। आज भी यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा  में मील का पत्थर मानी जाती है।

रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन  करते हुए जेल गये, आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का  सम्मान भी लौटा दिया। इसी दौरान उन्‍होंने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी  साहित्य मंच' की स्थापना के साथ उस समय भयानक रोग रेणु को  'पैप्टिक अल्सर' की गंभीरता को झेला, इस बीमारी के बाद भी रेणु ने  1977 ई. में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफ़ी काम किया  परंतु 11 अप्रैल 1977 ई. को रेणु उसी 'पैप्टिक अल्सर' की बीमारी के  कारण चल बसे।

फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत  की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर  रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने  के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने  'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक  विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी  कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक  विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र  की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है।  'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको  उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की  महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां',  आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

फिलहाल ये सब इतिहास है जिसे आज की पीढ़ी सिर्फ सहेज सकती है,  उसे महसूस करना है तो रेणु की ही तरह ज़मीन पर उतर कर सोचना  होगा।

- अलकनंदा सिंह

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