सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

मतभेद या राष्‍ट्रभेद ?

''भारत तेरे टुकड़े होंगे, हम क्‍या चाहें- आज़ादी'' जैसे नारों ने पिछले साल तो बवाल मचाया ही, अब इस साल भी दिल्‍ली यूनीवर्सिटी के रामजस कॉलेज से जो कुछ शुरू हुआ है, उसे सिर्फ और सिर्फ देश में अस्‍थिरता लाने व सेना के खिलाफ एक ''खास सोच वाले'' तबके की शरारती सोच ही कहा जाएगा जो किसी ना किसी तरह खबरों में रहना चाहता है।
कोई एक कारण गिनायें ये कि इन्‍हें देशविरोधी मानसिकता का क्‍यों ना कहा जाए। कश्‍मीर में सालों पूर्व हुए रेपकांड को सेना के विरोधस्‍वरूप और कश्‍मीर की आजादी की बात करते हुए 22 फरवरी को कॉलेज में आइसा के छात्र सेमीनार के आयोजन का आखिर औचित्‍य क्‍या था। पत्‍थरबाजों के खिलाफ इनका मुंह क्‍यों नहीं खुलता, कश्‍मीरी पंडितों के लिए ये कोई अभियान क्‍यों नहीं चलाते। क्‍यों अफजल गुरू को अपना आदर्श मानते हैं।
तो क्‍या संविधान, संसद और न्‍यायपालिका से भी इनका विरोध है। क्‍यों नहीं ये लोग नक्‍सल प्रभावित क्षेत्रों में जाकर सरकार के साथ आदिवासियों के पुनर्वास का काम करते हैं। नक्‍सल समस्‍या के जड़ में गरीबी नहीं है, वह प्रवृत्‍ति है जो धन और हथियारों से पोषित होती है, ठीक कश्‍मीर की तरह। नोटबंदी ने काफी सच उगल भी दिया है, अब और क्‍या सच बाकी है कहने को।

उमर खालिद को बाकायदा बुलाया जाना, गुरमेहर से एबीवीपी के खिलाफ कहलवाया जाना कोई इत्‍तिफाक नहीं है, रणनीति के तह में वही हैं जो लाइमलाइट पसंद हैं। सवाल का जवाब तो हम जैसे आमजन भी जानना चाहते हैं कि क्‍यों रामजस जैसे ऐतिहासिक कॉलेज की फैकल्‍टी ने उमर खालिद को बुलाया। जो एबीवीपी ने किया उसे तो स्‍वयं फैकल्‍टी ने ही सामने परोसा ताकि असहिष्‍णुता, अवार्ड वापसी और जेएनयू, कन्‍हैया कुमार या नजीब अहमद के बाद जो खामोशी ''उनकी प्रोपेगंडा राजनीति'' में छा गई थी, वह फिर से चमके। जिस वामपंथ को पूरे देश में लगभग (केरल, त्रिपुरा को छोड़कर) नकारा जा चुका है और जो आउटडेटेड हो चुका है, उसे फिर प्रकाश में लाया जाये।

यदि ऐसा ना होता तो सिमी के एक्‍टिव मेंबर रहे पिता की औलाद व जेएनयू में छात्र नेता उमर खालिद ने बाकायदा कश्‍मीर के एक आतंकवादियों के हित में और सेना के विरोध में जो अभियान चलाया हुआ है, उसका प्रसार रामजस कॉलेज तक इस तरह ना पहुंचता।

ज़ाहिर है छात्र राजनीति होनी ही थी। बवाल हुआ, मारपीट हुई, पुलिसिया कार्यवाही भी हुई मगर इसी बीच रामजस कॉलेज में पढ़ने वाली कारिगल शहीद मंदीप सिंह की बेटी गुरमेहर ने सोशल मीडिया पर "I love this country and I am not frightened of anyone. I have got these threats many times. No one can threaten women, I will take a bullet for my country. This is not about politics, this is about students. No matter who you are, one cannot threaten women." लिखा जिसने सही जगह चोट की, अचानक जो उमर खालिद खबरों में नहीं था, जो अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता खबरों में नहीं थी, वह खबरों में आ गई। गुरमेहर का एक वाक्‍य तो सही है कि मैं किसी से नहीं डरती। सही बात है, आखिर कोई भी किसी से क्यों डरे? गुरमेहर से मेरा सवाल यह है कि उसे या उस जैसे अन्‍य छात्रों को एबीवीपी से डर क्यों लगता है?
रामजस के बवाल को शांत करने की बजाय इसकी आग में घी गुरमेहर ने एक बार और डाला। गुरमेहर ने आज फिर एक पोस्‍ट अपनी फेसबुक पर लिखी, हाथ में प्‍लकार्ड लिए हुए वही स्‍टाइल, एक जिस पर  लिखा था "Pakistan did not kill my dad, war killed him"। कितना वहियात सा वाक्‍य था यह, करगिल के शहीदों का अपमान है यह। सोशल मीडिया और तिस पर वो इलेक्‍ट्रानिक मीडिया जिसके सभी धुरंधर इस ताक में बैठे रहते हैं कि कब अपनी भड़ास निकालने का मौका मिले, उन्‍होंने प्राइम टाइम इसी के नाम कर दिया।
प्रश्‍न उठना लाजिमी है कि युद्ध के लिए हरवक्‍त जो सेना अपनी जान हथेली पर लिए सीमा पर मुस्तैद रहती है, देश के हर भूभाग को बचाने के लिए दिनरात एक किए रहती है यदि उसके अपने बच्‍चे ही उसकी राष्‍ट्रभक्‍ति पर सवाल उठाने लगेंगे तो देश की अखंडता किसी न किसी स्‍तर पर शर्मिंदा जरूर होती है। कहीं नक्‍सली, कहीं आतंकी, कहीं अलगाववादी, तो कहीं भारत से आजादी चाहने वाले सिर उठाते रहेंगे। अफजल गुरूओं को फिर संसद पर हमले की जरूरत क्‍या रह जाती है।

दुखद ही नहीं यह शर्मनाक भी है कि आज जब ‘भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी जंग रहेगी’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाने वाले लोगों का समर्थन करने वालों के विरोध में कोई खड़ा होता है तो मीडिया उसे विलेन की तरह पेश करता है। अभिव्यक्ति की आजादी सबको है मगर देश के प्रति अपने दायित्व को नजरंदाज करके आजादी की बात करना बेईमानी है।

सही मायनों में विभिन्न संगठनों की राजनीति के चक्कर में देश के लिए अपने व्यक्तिगत सुख को त्याग कर शहादत स्वीकार करने वालों के बलिदान का उपयोग करना पूरी तरह से गलत है। उन बलिदानियों के बलिदान का सम्मान करना हमारी नौतिक जिम्मेदारी है। गुरमेहर से कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए लेकिन ये सवाल दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली उस लड़की से नहीं हैं जिसके पिता शहीद हो गए। बल्कि सवाल उस बेटी से हैं जो स्कूल में पढ़ाई के दौरान पीटीएम में अपने पिता को मिस करती थी, जो हर त्योहार को इस उम्मीद में बिना पिता के मना लेती थी कि इस बार न सही लेकिन अगले त्योहार पर उसके पिता जरूर घर आएंगे, जो आज अपने पिता की तस्वीर देखकर उनकी शहादत पर गर्व करती है।

तो बताओ गुरमेहर कि क्या तुम्‍हारे पिता उन लोगों का समर्थन करते जो कहते हैं कश्मीर को, बस्तर को, पूर्वोत्तर के राज्यों को भारत से ‘आजादी’ दे देनी चाहिए?
आज अगर कश्मीर में आपके पिता पर कुछ ‘आजादी के परवाने’ पत्थर चला रहे होते तो क्या तुम उन पत्थरों को कश्मीरियों का गुस्सा करार देतीं?
तुम अपने जिस पिता की शहादत का राजनीतिकरण कर रही हो, क्या वह उन लोगों का समर्थन करते जो कहते हैं कि भारत ने कश्मीर पर नाजायज कब्ज़ा किया हुआ है?
क्या तुम्‍हारे पिता बुरहान वानी जैसे आतंकवादियों को शहीद अथवा आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाला मानते हुए उसके जनाजे में शामिल होने वालों का समर्थन करते?
क्या तुम उन लोगों से सहमत हो जो कहते हैं कि भारतीय सेना के जवान बलात्कारी हैं?
ऐसे बहुत से सवाल हैं, क्‍या दोहरी नीति पर चलने वाले कथित वामपंथियों में यह हिम्मत है कि वे इन सवालों का सामना कर सकें। जो रिसर्च के नाम पर भारी भरकम राशि सरकार से लेते हैं, हमारे टैक्‍स से पलते हैं और भारत के टुकड़े करने वालों को सेमीनार में बतौर अतिथि आमंत्रित करते हैं।

देश का दुर्भाग्य है कि एक शहीद की बेटी अपने पिता की शहादत को अपमानित कर रही है। वह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर नहीं खोज पा रही। उसे शहादत का अर्थ ही नहीं समझ आ रहा है क्योंकि अगर उसे शहादत का दर्द पता होता तो वह उस दर्द को भी महसूस करती जो भारतीय सेना के जवानों को पत्थर खाते वक्त होता है। निश्‍चित ही हम किसी तरह की हिंसा के समर्थक नहीं, एबीवीपी के भी नहीं। जिस किसी ने कानून हाथ में लेने की कोशिश की है तो उसे सजा मिलनी चाहिए लेकिन इसके साथ ही एक सवाल भी कि जो देश को तोड़ने की बात करने वालों का समर्थन करते हैं, उनके लिए संवैधानिक मानवाधिकार की बात आखिर किस आधार पर?

दिल्ली के रामजस कॉलेज में तथाकथित एबीवीपी/वामपंथी कार्यकर्ताओं ने जिस तरह का हिंसक प्रदर्शन किया, उसकी भर्त्‍सना होनी चाहिए मगर साथ ही उन लोगों का विरोध भी जो कश्मीर को भारत का अवैध कब्जा बताने वालों का, देश विरोधी नारे लगाने वालों का, भारतीय सेना को रेपिस्ट कहने वालों का, राष्ट्र की एकता, अखंडता और अस्मिता पर प्रहार करने वालों का समर्थन करने वालों को मंच देने की बात करते हैं। जो लोग संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास नहीं करते, संविधान में दिए गए मौलिक दायित्वों यानी कर्तव्यों का पालन नहीं करते, उनका संविधान में दिए गए ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार’ पर अधिकार कैसे है?

आप भी सोचिएगा ज़रा...क्‍योंकि चुप्पी ऐसी उच्‍छृ़ंखलताओं को और बढ़ावा ही देगी।

-अलकनंदा सिंह

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