बुधवार, 30 नवंबर 2016

अथातो साहित्‍यमंच कथा...द फुलऑन ड्रामा

समकालीन साहित्‍य किसी भी समाज का दर्पण होता है और साहित्‍य की दशा व दिशा दोनों को शब्‍दों के माध्‍यम से ही व्‍यक्‍त किया जा सकता है मगर लिटरेचर फेस्‍टीवल्‍स के नाम पर जो साहित्‍य मंच सजे हुए हैं, वे बता रहे हैं कि आज के साहित्‍य की दशा क्‍या है और आगे की दिशा क्‍या होगी।
जिस मनके से साहित्‍य अभी तक गूंथा जाता रहा , वह है शब्‍द। शब्‍द तब भी था जब श्रुतियों में ज्ञान समाया होता था। शब्‍द आज भी है जब वह स्‍वयं अपने दुरुपयोग से आहत है। शब्‍द का ये दुख तब और असहनीय होता है जब इसे स्‍वयं साहित्‍यकारों द्वारा विभिन्‍न मंचों से मात्र अपने निहितार्थ तोड़ा-मरोड़ा जाता है, वह भी मात्र इसलिए कि वह मीडिया में छा सकें या बुद्धिजीविता की और कुछ डिप्‍लोमैटिक सीढ़ियां चढ़ सकें। धाक जमा सकें कि देखो ऐसे हैं हम ''लोगों को बरगलाते हुए, सरकार को गरियाते हुए, सुधारवाद की सिर्फ बात करने वाले'' ''जमीनी हकीकतों से दूर रहने वाले इलीट''।
हमारे शास्‍त्रों में शब्‍द को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है क्‍योंकि यह शाश्‍वत है और जो शाश्‍वत है , वह प्रकृति है और प्रकृति के खिलाफ बोलना ईश्‍वर के खिलाफ जाना है अर्थात् शब्‍द का सम्‍मान  करते हुए यदि सकारात्‍मकता के साथ बोला जाए तो वह अपना संदेश भी सकारात्‍मक देगा, यह बात साहित्‍यकार कुबूल ही  नहीं करना चाहते। हद तो तब हो जाती है जब साहित्य का बाजार भी इस परिभाषा को नहीं समझना चाहता। बाजारवाद इस कदर हावी है कि साहित्‍य की सेल लग रही है, तरह तरह के साहित्‍य मंच सजाए जा रहे हैं। इन मंचों पर भी विवादों ने कब्‍जा किया हुआ है, साहित्‍यकार तो एक कोने में रहते हैं मगर अपनी साहित्‍यिक सोच के नाम पर कहीं चिदंबरम दिखते हैं तो कहीं कन्‍हैया। और इन मंचों का इस्‍तेमाल लिटरेचर फेस्‍टीवल के आयोजक अपना नाम बेचकर एक अच्‍छे सेल्‍समैन की तरह अपने ''माल'' को ऊंची बोली (कंट्रावर्सियल हाइप) लगा कर कमा रहे हैं।
बहरहाल ऐसे में साहित्‍य अपने दंभ को कब तक बचा कर रख पाएगा, कहना मुश्‍किल है। अलबत्‍ता शब्‍दों, विचारधाराओं, मतों और इनमें व्‍याप्‍त विभिन्‍नताओं को संभालने वाला शब्‍द और इससे सजने वाला साहित्‍य निर्वस्‍त्र सा किया जा रहा है।
पूरे देश में साहित्‍य 'मंचों' पर तो है मगर मंच से जुदा है, वहां सिर्फ कंट्रोवर्सी ही कंट्रोवर्सी हैं। साहित्‍य के नाम पर व  उसकी आड़ में...राजनीति है...क्रूर वक्‍तव्‍य हैं...राष्‍ट्रवाद का मजाक बनाने वाले घिनौने आरोप हैं... अलगाववाद की अवधारणा वाले बयान हैं...यहां अखाड़ेबाजी के दांव-पेंच भी हैं और शतरंज की शह-मात भी।
सत्‍याग्रह ब्‍लॉग में अशोक वाजपेयी जब लिखते हैं कि-
''युवा वही है जो सचाई, भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम    उठाता है। उसके लिए अपनी उपलब्‍धि से अधिक अपना संघर्ष अधिक मूल्‍यवान व जरूरी होता है। साहित्‍य में परिवर्तन के लिए भाषा में परिवर्तन आना जरूरी है तभी हम कह सकते हैं कि समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति बदल रहे हैं।''
बिल्‍कुल सही है वाजपेयी जी का ये कथन तभी तो ''कश्‍मीर  में तैनात सैनिक बलात्‍कारी हैं'', ''भारत तेरे टुकड़े होंगे'' ''अफजल हम शर्मिंदा हैं ,तेरे कातिल ज़िंदा हैं'' जैसे नारों से तथाकथित ख्‍याति अर्जित करने वाले कन्‍हैयाकुमार को साहित्‍य मंच अपने यहां आमंत्रित करके न केवल समाज और सच्‍चाई को सामने ला रहे हैं बल्‍कि समय और अभिव्‍यक्‍ति का सच भी बता रहे हैं कि यह किस रास्‍ते पर हैं और भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम उठा रहे हैं।
स्‍वयं अशोक वाजपेयी जी अवार्ड वापस कर बता ही चुके हैं कि समाज का बुद्धिजीवी कितना अगंभीर हो चुका है और किसी अगंभीर व्‍यक्‍ति से शब्‍द के प्रति ''सम्मान'', भाषा के प्रति गंभीरता उतनी ही खोखली है जितनी कि साहित्‍य मंचों की विभिन्‍न रत्‍नों ( कन्‍हैयाकुमार जैसे) से की गई सजावट। वाजपेयी जी का जिक्र करना यहां इसलिए जरूरी हुआ कि जिस समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति को बदलने की वो बात कर रहे हैं, स्‍वयं उन्‍होंने राजनैतिक विद्धेष पालने वाले साहित्‍यकार होने का ही मुजाहिरा किया है अभी तक। जब साहित्‍यकार ही अपनी बात में ईमानदार नहीं होंगे तो वो साहित्‍य के नाम पर मंच बनाने वाले सौदागरों की मुखालफत कैसे कर पाऐंगे। और जब साहित्‍यकार ही इस बाजारवाद को मुंह सिंए देखते रहेंगे तो युवाओं को किसी भी तरह की सीख देने का उन्‍हें अधिकार नहीं।
मैं राष्‍ट्रवाद की गढ़ी गई परिभाषा से इतर ये अवश्‍य कहना चाहूंगी कि अशोक वाजपेयी हों या अन्‍य साहित्‍यकार, उनकी ये चुप्‍पी साहित्‍य को ''बाजार'' तक तो ले ही आई है। इन वरिष्‍ठों से हमारी गुजारिश है कि कम से कम अब तो इसे ''बाजारवाद'' की भेंट ना चढ़ने दें। साहित्‍य मंचों पर गैर साहित्‍यकारों का कब्‍जा स्‍वयं साहित्‍य को, उसमें समाहित श्‍ब्‍दों के विशाल समूह को, शब्‍दरूप ब्रह्म को अपमानित करने एक तरीका है और साहित्‍य की बेहतरी के लिए ये तरीका अब और नहीं चलना चाहिए। वो गैर साहित्‍यकार, जो शब्‍दों की महत्‍ता नहीं समझ सकते, विशुद्ध साहित्‍यकारों को पीछे धकेले दे रहे हैं।
जिस शब्‍द से समाज और संस्‍कृति का परिचालन होता है, जब वो शब्‍द ही नहीं बचेगा तो ना समाज बचेगा और ना ही संस्‍कृति। साहित्‍य मंचों का ''बाजार'' हमारे समाज-साहित्‍य सभी के लिए अच्‍छा संकेत नहीं है।

- अलकनंदा  सिंह

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