बुधवार, 30 नवंबर 2016

अथातो साहित्‍यमंच कथा...द फुलऑन ड्रामा

समकालीन साहित्‍य किसी भी समाज का दर्पण होता है और साहित्‍य की दशा व दिशा दोनों को शब्‍दों के माध्‍यम से ही व्‍यक्‍त किया जा सकता है मगर लिटरेचर फेस्‍टीवल्‍स के नाम पर जो साहित्‍य मंच सजे हुए हैं, वे बता रहे हैं कि आज के साहित्‍य की दशा क्‍या है और आगे की दिशा क्‍या होगी।
जिस मनके से साहित्‍य अभी तक गूंथा जाता रहा , वह है शब्‍द। शब्‍द तब भी था जब श्रुतियों में ज्ञान समाया होता था। शब्‍द आज भी है जब वह स्‍वयं अपने दुरुपयोग से आहत है। शब्‍द का ये दुख तब और असहनीय होता है जब इसे स्‍वयं साहित्‍यकारों द्वारा विभिन्‍न मंचों से मात्र अपने निहितार्थ तोड़ा-मरोड़ा जाता है, वह भी मात्र इसलिए कि वह मीडिया में छा सकें या बुद्धिजीविता की और कुछ डिप्‍लोमैटिक सीढ़ियां चढ़ सकें। धाक जमा सकें कि देखो ऐसे हैं हम ''लोगों को बरगलाते हुए, सरकार को गरियाते हुए, सुधारवाद की सिर्फ बात करने वाले'' ''जमीनी हकीकतों से दूर रहने वाले इलीट''।
हमारे शास्‍त्रों में शब्‍द को ब्रह्म की संज्ञा दी गई है क्‍योंकि यह शाश्‍वत है और जो शाश्‍वत है , वह प्रकृति है और प्रकृति के खिलाफ बोलना ईश्‍वर के खिलाफ जाना है अर्थात् शब्‍द का सम्‍मान  करते हुए यदि सकारात्‍मकता के साथ बोला जाए तो वह अपना संदेश भी सकारात्‍मक देगा, यह बात साहित्‍यकार कुबूल ही  नहीं करना चाहते। हद तो तब हो जाती है जब साहित्य का बाजार भी इस परिभाषा को नहीं समझना चाहता। बाजारवाद इस कदर हावी है कि साहित्‍य की सेल लग रही है, तरह तरह के साहित्‍य मंच सजाए जा रहे हैं। इन मंचों पर भी विवादों ने कब्‍जा किया हुआ है, साहित्‍यकार तो एक कोने में रहते हैं मगर अपनी साहित्‍यिक सोच के नाम पर कहीं चिदंबरम दिखते हैं तो कहीं कन्‍हैया। और इन मंचों का इस्‍तेमाल लिटरेचर फेस्‍टीवल के आयोजक अपना नाम बेचकर एक अच्‍छे सेल्‍समैन की तरह अपने ''माल'' को ऊंची बोली (कंट्रावर्सियल हाइप) लगा कर कमा रहे हैं।
बहरहाल ऐसे में साहित्‍य अपने दंभ को कब तक बचा कर रख पाएगा, कहना मुश्‍किल है। अलबत्‍ता शब्‍दों, विचारधाराओं, मतों और इनमें व्‍याप्‍त विभिन्‍नताओं को संभालने वाला शब्‍द और इससे सजने वाला साहित्‍य निर्वस्‍त्र सा किया जा रहा है।
पूरे देश में साहित्‍य 'मंचों' पर तो है मगर मंच से जुदा है, वहां सिर्फ कंट्रोवर्सी ही कंट्रोवर्सी हैं। साहित्‍य के नाम पर व  उसकी आड़ में...राजनीति है...क्रूर वक्‍तव्‍य हैं...राष्‍ट्रवाद का मजाक बनाने वाले घिनौने आरोप हैं... अलगाववाद की अवधारणा वाले बयान हैं...यहां अखाड़ेबाजी के दांव-पेंच भी हैं और शतरंज की शह-मात भी।
सत्‍याग्रह ब्‍लॉग में अशोक वाजपेयी जब लिखते हैं कि-
''युवा वही है जो सचाई, भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम    उठाता है। उसके लिए अपनी उपलब्‍धि से अधिक अपना संघर्ष अधिक मूल्‍यवान व जरूरी होता है। साहित्‍य में परिवर्तन के लिए भाषा में परिवर्तन आना जरूरी है तभी हम कह सकते हैं कि समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति बदल रहे हैं।''
बिल्‍कुल सही है वाजपेयी जी का ये कथन तभी तो ''कश्‍मीर  में तैनात सैनिक बलात्‍कारी हैं'', ''भारत तेरे टुकड़े होंगे'' ''अफजल हम शर्मिंदा हैं ,तेरे कातिल ज़िंदा हैं'' जैसे नारों से तथाकथित ख्‍याति अर्जित करने वाले कन्‍हैयाकुमार को साहित्‍य मंच अपने यहां आमंत्रित करके न केवल समाज और सच्‍चाई को सामने ला रहे हैं बल्‍कि समय और अभिव्‍यक्‍ति का सच भी बता रहे हैं कि यह किस रास्‍ते पर हैं और भाषा, विचार, रूपाकार को बदलने का जोखिम उठा रहे हैं।
स्‍वयं अशोक वाजपेयी जी अवार्ड वापस कर बता ही चुके हैं कि समाज का बुद्धिजीवी कितना अगंभीर हो चुका है और किसी अगंभीर व्‍यक्‍ति से शब्‍द के प्रति ''सम्मान'', भाषा के प्रति गंभीरता उतनी ही खोखली है जितनी कि साहित्‍य मंचों की विभिन्‍न रत्‍नों ( कन्‍हैयाकुमार जैसे) से की गई सजावट। वाजपेयी जी का जिक्र करना यहां इसलिए जरूरी हुआ कि जिस समाज और सचाई, समय और अभिव्‍यक्‍ति को बदलने की वो बात कर रहे हैं, स्‍वयं उन्‍होंने राजनैतिक विद्धेष पालने वाले साहित्‍यकार होने का ही मुजाहिरा किया है अभी तक। जब साहित्‍यकार ही अपनी बात में ईमानदार नहीं होंगे तो वो साहित्‍य के नाम पर मंच बनाने वाले सौदागरों की मुखालफत कैसे कर पाऐंगे। और जब साहित्‍यकार ही इस बाजारवाद को मुंह सिंए देखते रहेंगे तो युवाओं को किसी भी तरह की सीख देने का उन्‍हें अधिकार नहीं।
मैं राष्‍ट्रवाद की गढ़ी गई परिभाषा से इतर ये अवश्‍य कहना चाहूंगी कि अशोक वाजपेयी हों या अन्‍य साहित्‍यकार, उनकी ये चुप्‍पी साहित्‍य को ''बाजार'' तक तो ले ही आई है। इन वरिष्‍ठों से हमारी गुजारिश है कि कम से कम अब तो इसे ''बाजारवाद'' की भेंट ना चढ़ने दें। साहित्‍य मंचों पर गैर साहित्‍यकारों का कब्‍जा स्‍वयं साहित्‍य को, उसमें समाहित श्‍ब्‍दों के विशाल समूह को, शब्‍दरूप ब्रह्म को अपमानित करने एक तरीका है और साहित्‍य की बेहतरी के लिए ये तरीका अब और नहीं चलना चाहिए। वो गैर साहित्‍यकार, जो शब्‍दों की महत्‍ता नहीं समझ सकते, विशुद्ध साहित्‍यकारों को पीछे धकेले दे रहे हैं।
जिस शब्‍द से समाज और संस्‍कृति का परिचालन होता है, जब वो शब्‍द ही नहीं बचेगा तो ना समाज बचेगा और ना ही संस्‍कृति। साहित्‍य मंचों का ''बाजार'' हमारे समाज-साहित्‍य सभी के लिए अच्‍छा संकेत नहीं है।

- अलकनंदा  सिंह

सोमवार, 21 नवंबर 2016

भारतीय Mars Orbiter द्वारा भेजी गई फोटो को नेशनल जियोग्राफिक ने कवर पेज बनाया

 देश की प्रगति को यदि निस्‍पृह होकर देखा जाए तो यह बारबार दिख रहा है कि ... देश बदल रहा है। आज आई ये सूचना वैश्‍विक स्‍तर पर देश की ख्‍याति को एक और पायदान ऊपर ले जाने वाली है। इसे किसी राजनैतिक सोच, पार्टी या नेता अथवा विचारधारा से ना जोड़करखालिस भारतीय प्रगतिवाद से जोड़कर देखना चाहिए। निश्‍चितत: यह हमारे लिए गर्व का विषय है।
भारतीय Mars Orbiter द्वारा भेजी गई फोटो को नेशनल जियोग्राफिक ने कवर पेज बनाया

मंगल मिशन पर गए भारतीय Mars Orbiter ने तीन साल होने पर एक और उपलब्धि हासिल कर ली है। मंगलयान द्वारा ली गई मंगल ग्रह की एक तस्वीर को प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेशनल जियोग्राफिक ने कवर फोटो बनाया है। मंगलयान ने यह तस्वीर साधारण कैमरे से ली और इसमें मंगल ग्रह की तकरीबन पूरी तस्वीर एक साथ दिख रही है। मंगलयान की इस उपलब्‍धि से भारत के नाम एक और सफलता जुड़ गई है।
इस उपलब्धि पर प्रतिक्रिया देते हुए एक विशेषज्ञ ने कहा, मंगल ग्रह की हाई रिजोल्यूशन की इतनी बड़ी तस्वीर बहुत कम ही उपलब्ध है। भले ही दुनिया के तमाम देशों ने लाल ग्रह को लेकर पिछले कई सालों में 50 से ज्यादा मिशन किए हों लेकिन मंगलयान द्वारा खीचीं गई यह तस्वीर बहुत उम्दा है।
गौरतलब है कि मंगलयान की सफलता के साथ ही भारत पहली ही कोशिश में मंगल पर जाने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। यूरोपीय, अमेरिकी और रूसी यान लाल ग्रह की कक्षा में या जमीन पर पहुंचे हैं लेकिन कई प्रयासों के बाद।
भारत का मंगलयान बहुत ही कम लागत वाला अंतरग्रही मिशन है। नासा का मंगल यान मावेन 22 सितंबर को मंगल की कक्षा में प्रविष्ट हुआ था। भारत के मंगलयान की कुल लागत मावेन की लागत का मात्र दसवां हिस्सा है। कुल 1,350 किग्रा वजन वाले अंतरिक्ष यान में पांच उपकरण लगे हैं।
इन उपकरणों में एक सेंसर, एक कलर कैमरा और एक थर्मल इमैजिंग स्पेक्ट्रोमीटर शामिल है।
यह उपग्रह, जिसका आकार लगभग एक नैनो कार जितना है, तथा संपूर्ण मार्स ऑरबिटर मिशन की लागत कुल 450 करोड़ रुपये या छह करोड़ 70 लाख अमेरिकी डॉलर रही है, जो एक रिकॉर्ड है।
यह मिशन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन या इसरो) ने 15 महीने के रिकॉर्ड समय में तैयार किया,
और यह 300 दिन में 67 करोड़ किलोमीटर की यात्रा कर अपनी मंज़िल मंगल ग्रह तक पहुंचा। यह निश्चित रूप से दुनियाभर में अब तक हुए किसी भी अंतर-ग्रही मिशन से कहीं सस्ता है।

- अलकनंदा  सिंह 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ये फीनिक्‍स के अपनी राख में से उठ खड़े होने का समय है

कहावतें और उक्‍तियां, लोकोक्‍तियां बनकर किसी भी देश, काल, समाज की  उन्‍नति तथा अवनति, विचारधारा, सांस्‍कृतिक उत्थान- पतन और सामाजिक चेतना  के स्‍तर को दिखाती हैं।
ऐसी ही एक कहावत हमारे देश के बारे में भी प्रचलित रही है- कि ''भारत सोने  की चिड़िया था''। इस एक कहावत ने देश के प्राचीनतम इतिहास, भूगोल,  सामाजिक व्‍यवस्‍था, सांस्‍कृतिक विरासतें सभी को अपनी ज़द में ले लिया था और  इस एक कहावत ने ही देश की अनमोल विरासतों के खंड-खंड कराए। इस तरह ये  भारतवर्ष से यह भारत बनता गया। सोने की चिड़िया को बार-बार उड़ने, घायल  होने पर विवश होना पड़ा। सदियों के ताने-बाने इस एक कहावत ने बदल दिए।  चूंकि देश सोने की चिड़िया था इसलिए आक्रांताओं  की गिद्ध दृष्‍टि से बच नहीं  पाया, और इस कहावत के कारण ही हमने राजनैतिक-सामरिक विखंडन जैसे  झंझावात झेले। देश को सोने की चिड़िया कहे जाने के Consequences आज तक  देखे जा सकते हैं।
मगर कहते हैं ना कि समय किसी के लिए एक जैसा नहीं रहता, ना व्‍यक्‍तियों के  लिए और ना ही देश के लिए। वह अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और सबको  उसी की गति के नियम मानने भी होते हैं। इसीलिए इस कहावत ने भी अपनी  गति, समय की गति में मिलाई और इसका रूप बदला। इसी बदले रूप को हम  आजकल देख सकते हैं।
हालांकि कुछ नकारात्‍मक चेष्‍टाओं ने समाजवाद के नाम हमें बार-बार यह दिखाने  की कोशिश की कि भारत सोने की चिड़िया था मगर अब सोने की चिड़िया नहीं  रहा, उन्‍होंने पूंजी की असमानता का राग तो अलापा मगर उस असमानता को दूर  करने का कोई रास्‍ता नहीं दिखाया, संभवत: वे समाजवादी और उनके वर्तमान  प्रतिरूप कथित समाजवादी (पार्टी नहीं) सोच वाले एक भयंकर नकारात्‍मकता से  घिरते चले गए।
इस बीच देश अपने सोने की चमक से लेकर गुलामी की कालिख तक बार-बार  राख कर दिए जाने के बावजूद फीनिक्‍स पक्षी की तरह उठ खड़ा होता रहा, समय  के साथ उसने तमाम जद्देाजहद सहकर अपनी राख से फिर उठ खड़े होने का  हौसला दिखाया। 8 नवंबर के बाद से तस्‍वीर बता रही है कि सोने की चिड़िया का  ये रूप परिवर्तन हो चुका है, अब यह कहीं बैंकों की कतार में खड़े दिहाड़ी मजदूर  के हौसले के रूप में तो कहीं कालाधन वालों में बेचैनी के रूप में दिखाई दे रहा है।  आज से तो बेनामी संपत्‍तियों पर सरकार की निगाहें बता रही हैं कि ये समय  फीनिक्‍स से सोन चिरैया बनने का है। हर बदलाव, हर नया रूप, हर नई चेतना  का जन्‍म दर्द से ही होता है मगर दर्द के बाद नएपन का नज़ारा ही कुछ और  होता है। कतार में खड़े होने का दर्द अपने साथ कुछ नए खुशनुमा संकेत भी ला  रहा है।
अपनी राख से तो फीनिक्‍स जी उठा है, वह अब पुन: सोने की चिड़िया बनने के  लिए अंगड़ाई ले रहा है। अब ये हमें सोचना है कि इस चिड़िया को सही दिशा कैसे  दी जाए, इस चेतना के साथ कि अब सोने की चिड़िया पर किसी की बुरी नजर ना  पड़ सके, चाहे वह नज़र बाहरी हो या भीतरी।


और अंत में.....
फीनिक्‍स के बावत आपने यह तो सुना ही होगा कि उसे दुनियाभर की दंत कथाओं  में  ५०० से १००० वर्षों तक जीने वाला मायापंक्षी कहा गया है जिसके प्रमाण अभी  नहीं मिले हैं मगर वह मौजूद हर कालखंड में रहा है।
कथाओं के अनुसार फ़ीनिक्स एक बेहद रंगीन पक्षी है जिसकी दुम कुछ कथाओं में  सुनहरी या बैंगनी बताई गई है तो कुछ में हरी या नीली. यह अपने जीवनचक्र के  अंत में खुद के इर्द-गिर्द लकड़ियों व टहनियों का घोंसला बनाकर उसमें स्वयं जल  जाता है। घोसला और पक्षी दोनों जल कर राख बन जाते हैं और इसी राख से एक  नया फ़ीनिक्स उभरता है।
इस नए जन्मे फ़ीनिक्स का जीवन काल पुराने फ़ीनिक्स जितना ही होता है।
कुछ और कथाओं में तो नया फ़ीनिक्स अपने पुराने रूप की राख एक अंडे में भर  कर मिस्र के शहर हेलिओपोलिस (जिसे यूनानी भाषा में "सूर्य का शहर" कहते है)  में रख देता है। यह कहा जाता है की इस पक्षी की चीख़, किसी मधुर गीत जैसी  होती है। अपने ही राख से पुनर्जन्म लेने की काबिलियत के कारण यह माना जाता  है कि फ़ीनिक्स अमर है। यहां तक कि कुछ प्राचीन कहानियों के अनुसार ये  मानवों में तब्दील होने की काबिलियत भी रखता है।


- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 12 नवंबर 2016

और..अफवाहों का समाजशास्‍त्र

सुप्रीम कोर्ट के जज मार्कंडेय काटजू ने सही ही कहा था कि देश में 90% लोग मूर्ख हैं, हालांकि मैं इससे पूर्णत: असहमत  हूं मगर आज भी जब अफवाहों के चलते नमक लेने दौड़ पड़ते लोग दिखाई देते हैं तो काटजू की बात पर ना चाहते हुए भी  विश्‍वास सा होने लगता है। अफवाहें हैं कि जीने ही नहीं देतीं...क्‍या बेपढ़े और क्‍या पढ़े लिखे...सभी के सभी नमक लेने को  लाइन में लगे थे, क्‍या नज़ारा था...बड़ा अजीब लगा देखकर।

इधर बैंक के सामने पुराने 500 और 1000 के पुराने नोट, नए से बदलने वाले और कुछ ''खुल्‍ला कराने वाले'' लाइन में  लगे थे, उधर कालाधन सफेद कराने वालों के बारे में तरह-तरह की सूचनाएं हवा में तैर रही थीं।
अव्‍वल तो 8 नवम्‍बर के बाद से सरकार ही अपनी ''बात'' समझाते-समझाते ही परेशान है, उसके बाद लोग हैं कि अफवाहें  फैला रहे हैं। और उस पर विश्‍वास करते लोगों को देखकर गुस्‍सा आना स्‍वभाविक है।

हालांकि पोथियों में पढ़ा जाने वाला ज्ञान जब व्‍यवहार में उतरता है तो उसकी शक्‍ल ही बदल जाती है। कहीं पढ़ा था कि  समाज मनोविज्ञान के अंतर्गत मनोविज्ञान और सामाजिक समस्‍याओं के तहत interpersonal behaviour में मनोवृत्‍तियों  का अध्‍ययन कराया जाता है जिसमें motivation and cognition में पढ़ाया जाता है कि बायोलॉजिकल मोटिव्‍स, सोशल  मोटिव्‍स आदि क्‍या होते हैं, उनके लाभ और हानि क्‍या होते हैं और इनके साधन क्‍या होते हैं। इन्‍हीं मोटिव्‍स में आती हैं  अफवाहें भी। अफवाह के बारे में ठीक-ठीक ये कहा नहीं जा सकता कि ये आखिर क्‍यों और कैसे फैलती रहीं। कुछ लोग  अफवाह के व्‍यापारी यानि rumour monger होते हैं जिन्‍हें समाज मनोविज्ञान में बीमार की श्रेणी में रखा जाता है जो  interactions पर आधारित होता है।

समाज मानोविज्ञान पर ही अरुण कुमार सिंह की किताब में अफवाह को एक ऐसी कहानी या प्रस्ताव बताया गया है कि  जो समुदाय के किसी ''संवेगात्मक घटना'' से सम्बन्धित होती है और जो मौखिक रूप से समुदाय के सदस्‍यों के बीच रंग  चलते हुए फैल जाती है। इसकी सच्चाई पर लोग आँख मूँदकर विश्‍वास कर लेते हैँ।

अफवाह में इमोशनल एलीमेंट इतना ज्‍यादा होता है कि कुछ सामान्य सी बात को भी लोग सामूहिक रूप से बेहद  इमोशनली होकर, उसमें अपनी पूर्ण कथात्‍मक क्षमता का समावेश करके नमक मिर्च लगा लगाकर परोसते रहते हैं और  शिक्षित व अशिक्षित सभी उस इमोशनल बहाव में बहते चले जाते हैं।

अभी अफवाह को लेकर बढ़ रही बेचैनी ही है कि केंद्र सरकार व स्‍टेट के डिपार्टमेंट ऑफ कंज्यूमर अफेयर्स को भरोसा  दिलाना पड़ा है कि लोगों को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। देश में सिर्फ 60 लाख टन नमक की खपत है जबकि  220 लाख टन का प्रोडक्शन होता है, लिहाजा नमक के दाम नहीं बढ़ेंगे। लोग घबराएं नहीं। ये सिर्फ अफवाह है और इसके  लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्यवाही की जाएगी।

शाम होने को आई मगर यूपी के साथ-साथ मध्य प्रदेश व गुजरात, आंध्र प्रदेश के भी कई शहरों में नमक को लेकर  अफवाह आती जा रही है।
अफवाह की खबरें आने पर केंद्रीय खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने उत्तर प्रदेश में नमक की किल्लत की अफवाहों को  खारिज करते हुए कहा कि इसकी कीमत 14 से 15 रुपये प्रति किलो ही है। पासवान ने कहा कि पैनिक फैलाने वालों पर  सरकार को एक्शन लेना चाहिए। राज्य सरकार एक्शन क्यों नहीं लेती हैं? कौन 200 रुपये किलो बेच रहा है। देश में न  नमक, न गेंहू, ना दाल किसी की कोई कमी नहीं है। ये केंद्र सरकार को बदनाम करने की राजनीति हो रही है।
अब राज्‍य सरकारें एक्‍शन लें या नहीं, अफवाहें कितनों को मालामाल करती हैं या बेवकूफ बनाती हैं, यह तो पता नहीं  मगर काटजू का कथन तो सच ही साबित हो रहा है कि हम सब (व्‍हाट्सएप समेत सोशल मीडिया इस ज़माने में भी)  कितनी आसानी से बड़ी संख्‍या में मूर्ख बनाए जा रहे हैं।

जो हकीकत से दूर भागते हैं और कान के कच्‍चे होते हैं, वही अफवाहों का निशाना बनते हैं...

किसी शायर ने क्‍या खूब ही कहा है कि -
“अफवाह कभी दिल-ए-हालात बता नहीं सकते,
जो जाननी हो तबियत तो हमसे मिलते रहा करो...”

-अलकनंदा सिंह

रविवार, 6 नवंबर 2016

तस्‍वीरें बता रही हैं कि हम ”किस तरह से” सूर्य की उपासना कर रहे हैं


प्रत्‍येक ‘उदय’ का ‘अस्त’ जहां भौगोलिक नियम है, वहीं ‘अस्त’ का ‘उदय’ प्राकृतिक व  आध्यात्मिक सत्य है। सूर्य की अस्‍ताचलगामी रश्‍मियां इस सत्‍य को सार्वभौम कर देती हैं।

आज अस्‍ताचलगामी सूर्य को अर्घ्‍य देती स्‍त्रियों की एक फोटो ने बहुत कुछ ऐसा कह दिया  कि पूरे पर्व के औचित्‍य पर दोबारा सोचना पड़ रहा है। हालांकि गत 3 नवम्‍बर को  यमद्वितीया पर मथुरा के यमुना किनारे का दृश्‍य भी कुछ इसी तरह का था।

बहन-भाई दोनों ही सोच रहे थे कि आखिर अपने प्रेम को ”किस यमुना” में डुबकी लगाकर  अमर किया जाए… वो यमुना जो पवित्र है, जिसे यम की बहन कहा गया, जो कृष्‍ण को  छूकर धन्‍य हुई थीं या उस यमुना को जो पूरे शहर का मैला ढोने को अभिशप्‍त है। ठीक  यही हाल आज दिल्‍ली की यमुना का भी दिखा।

सूर्य की उपासना का पर्व ”छठ” भी लोक में आकर अपनी दिव्यता का मूलभाव तिरोहित कर  चुका है, यदि ऐसा ना हुआ होता तो आज दिल्‍ली के कालिंदी कुंज की ये तस्‍वीरें हमें यह  सोचने पर बाध्‍य ना कर रही होतीं कि आखिर हम ”किस सूर्य की उपासना” कर रहे हैं,  ”किस तरह से” सूर्य की उपासना कर रहे हैं। पूरी तरह प्रदूषित जल में कमर तक खड़े  होकर, इसी प्रदूषण से उपजे झागों में घिर कर हम आखिर सूर्य की आराधना से किस  मनोकामना को पूरा करने की चाहत रख रहे हैं।

सूर्य की आराधना का ये लोक-भावन स्‍वरूप संभवत: कर्ण द्वारा सूर्य की उपासना से  प्रभावित दिखता है जिसमें जल में कमर तक खड़े होकर अर्घ्‍य दिया जाता है, मगर तब  जल और खासकर बहते हुए जल को पवित्र रखा जाता था। संभवत: इसीलिए संकल्‍प के  लिए जल से ज्‍यादा पवित्र कुछ नहीं था मगर अब स्‍थितियां एकदम बदल चुकी हैं।

यूं तो वैदिक मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ माने गये गायत्री महामन्त्र का देवता भी सविता अर्थात् सूर्य  ही है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है ‘‘सविता वा देवानां प्रसविता।’’ अर्थात् सविता ही देवों  का प्रसव करने वाला, अपने अंश से उत्पन्न करने वाला है। इसके अनुसार जो सूर्य आकाश  में दिखाई देता है, वह उस सूर्य का एक स्थूल रूप है जिसका विस्तार अनन्त है। शास्‍त्रों में  माना जाता रहा है कि यह ब्रह्माण्ड कितने ही सूर्यों से जगमगा रहा है और ये सभी सूर्य  उस अज्ञात महासूर्य की ही उपज हैं इसीलिए प्राणदायिनी ऊर्जा एवं प्रकाश का एक मात्र  स्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है।

निश्चय ही भारतीय संस्कृति ने सूर्य के इस लोकोपकारी स्वरूप को पहले ही जान लिया था,  इसीलिए भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना पर पर्याप्त बल दिया गया है।

सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के लाभ हैं। निष्काम भाव से दिन-  रात निरंतर अपने कार्य में रत सूर्य असीमित विसर्ग- त्याग की प्रतिमूर्त है, इसी तरह यह  कर्म प्रधानता को आगे रखता है। सूर्यदेव सबको समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल  तत्व है। भारतीय संस्कृति भी सभी को समर्थ बनाने की इसी भावना से ओत- प्रोत रही है।  इसी आधार पर आदि सविता तो परब्रह्म कहा जा सकता है किन्तु प्रत्यक्ष सूर्य को भी  ‘सविता’, अर्थात् परब्रह्म का सर्वोत्त्म प्रतीक कहा गया है।

अथर्ववेद में लिखा है-
‘संध्यानो देवःसविता साविशद् अमृतानि।’ अर्थात् यह सविता देव अमृत तत्त्वों से परिपूर्ण  है। और — ‘तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषः।’
अर्थात् यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार और अमृतमय है।

कहा जाता है कि वेदों में जितने भी मंत्र हैं, वे तन-मन को आरोग्‍य देते हैं मगर अथर्ववेद  की इसी पंक्‍ति को आज जब कालिंदी कुंज के झागदार प्रदूषित पानी में खड़े होकर सूर्य को  अर्घ्‍य देते समय दोहराया गया होगा तो क्‍या ये मंत्र अपना कोई प्रभाव छोड़ पाए होंगे, मुझे  तो भारी संशय है।

प्रदूषण की मार से यूं तो अब जल, जंगल, नदी और वायु सहित समूची प्रकृति प्रभावित है  किंतु यमुना और गंगा जैसी जीवनदायिनी नदियों के तो अस्‍तित्‍व पर ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगने  लगा है। यमुना को सूर्य की पुत्री माना गया है। ऐसे में अब सूर्योपासना के इस पर्व की  सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब इस पर्व को मनाने वाला समूचा वर्ग सूर्यपुत्री को प्रदूषणमुक्‍त  कराने का संकल्‍प ले और संकल्‍प ले इस बात का भी कि अगले छठ पर्व पर वह डूबते सूर्य  को अर्घ्‍य तो देगा लेकिन प्रदूषित यमुना में खड़े होकर नहीं।
यमुना ही क्‍यों, किसी भी  प्रदूषित नदी में खड़े होकर नहीं। सूर्य को अर्घ्‍य स्‍वच्‍छ व निर्मल जल की धारा में खड़े  होकर दिया जाएगा। फिर चाहे इसके लिए कितना ही कठिन व्रत और कितना ही कठिन  संकल्‍प क्‍यों न लेना पड़े।
– अलकनंदा सिंह