रविवार, 8 मई 2016

मैथ‍िलीशरण गुप्त की नज़र से… मां ने सिखाया पाठ

8 मई: मातृ दिवस पर विशेष  

कुछ भाव कुछ रिश्ते और कुछ अहसासों को हम सिर्फ महसूस कर सकते हैं, कभी-कभी जब तक अबोले रहकर उस स्थ‍िति से ना गुजरें तब तक वो अहसास अधूरे रहते हैं… वो दर्द अधूरे रहते हैं…वो दर्द जो एक शरीर से दूसरा पूरा एक शरीर बनाते हैं, उसे इस जहां से रूबरू कराते हैं।

आज 8 मई का दिन मातृ दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इसे मनाना आसान है, बच्चों का अपनी मां के प्रति एक दिन का ही सही, बदलते और बढ़ते समय ने एक बात तो अच्छी की कि मां के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाया। हालांकि इस एक दिन को मनाने को पर भी कई प्रतिक्रियायें सामने आती हैं, कोई कहता कि एक दिन ही क्यों… हम तो मां के हर पल, हर दिन कृतज्ञ हैं। कोई कहता कि ये सब कॉरपोरेटाइजेशन है संबंधों का। कोई कहता सब चोचलेबाजी है। जितनेलोग उतने ही नज़रिये।
इस सब के बीच पुरानी पीढ़ी हो या नई पीढ़ी, दोनों ही पीढ़ी की मांयें अपने अपने तरीके से अपने बच्चों को अपने विचार, संस्कार सौंप रही हैं। पुरानी पीढ़ी की मांओं ने जहां सिखाया शांत रहकर, सहनशक्ति के साथ परिवार को बांधकर चलना मगर इस तरह से वे स्वयं को उतना मुखर होकर सामने नहीं ला सकीं जितना कि आज की मांयें, वहीं आज की मां अपने प्रोफाइल के साथ बच्चों के प्रोफाइल को भी उतना ही महत्व दे रही हैं, यह बेहद जरूरी भी है।
बहरहाल, मां के किरदार पर तमाम बहसों- मुबाहिसों के बीच हम तो मातृत्व को सम्मानित करना चाहते हैं और पश्चिम से ही आया सही , ये एक दिन विश‍िष्ट तो है ही… तो फिर इसे सेलिब्रेट करना भी बनता है ना।
इस आसान सी दिखने वाली कठिन यात्रा पर आज मैथ‍िलीशरण गुप्त की कविता याद आ गई जो बचपन की किताबों- यादों में से अचानक निकली है।
ये कविता बताती है कि रक्षक और भक्षक, न्याय और अन्याय, आखेटक और खग की रक्षा जैसी गूढ़ सीखों को इस तरह बातों ही बातों में सिर्फ मां ही बता सकती है, मां ही सिखा सकती है।

गुप्त जी ने मां के नज़रिए को क्या खूब लिखा है…

“माँ कह एक कहानी।”
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?”
“कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।”

“तू है हठी, मानधन मेरे, सुन उपवन में बड़े सवेरे,
तात भ्रमण करते थे तेरे, जहाँ सुरभी मनमानी।”
“जहाँ सुरभी मनमानी! हाँ माँ यही कहानी।”

वर्ण वर्ण के फूल खिले थे, झलमल कर हिमबिंदु झिले थे,
हलके झोंके हिले मिले थे, लहराता था पानी।”
“लहराता था पानी, हाँ हाँ यही कहानी।”

“गाते थे खग कल कल स्वर से, सहसा एक हँस ऊपर से,
गिरा बिद्ध होकर खर शर से, हुई पक्षी की हानी।”
“हुई पक्षी की हानी? करुणा भरी कहानी!”

चौंक उन्होंने उसे उठाया, नया जन्म सा उसने पाया,
इतने में आखेटक आया, लक्ष सिद्धि का मानी।”
“लक्ष सिद्धि का मानी! कोमल कठिन कहानी।”

“माँगा उसने आहत पक्षी, तेरे तात किन्तु थे रक्षी,
तब उसने जो था खगभक्षी, हठ करने की ठानी।”
“हठ करने की ठानी! अब बढ़ चली कहानी।”

हुआ विवाद सदय निर्दय में, उभय आग्रही थे स्वविषय में,
गयी बात तब न्यायालय में, सुनी सब ने जानी।”
“सुनी सब ने जानी! व्यापक हुई कहानी।”

राहुल तू निर्णय कर इसका, न्याय पक्ष लेता है किसका?”
“माँ मेरी क्या बानी? मैं सुन रहा कहानी।
कोई निरपराध को मारे तो क्यों न उसे उबारे?
रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी।”
“न्याय दया का दानी! तूने गुणी कहानी।”

– मैथिलीशरण गुप्त
                 
- अलकनंदा सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें