शनिवार, 28 मार्च 2015

कन्या पूजन का प्रोफेशनलिज़्म

सामने के घर से कन्या पूजन के बाद बाहर आती बच्चियों की उम्र  बमुश्किल 5 से 8 वर्ष के बीच रही होगी। एक हाथ में  हलवा, पूरी और दूसरे हाथ में ऑब्लिगेशन गिफ्ट्स। कई घरों से बुलावे सुबह ही आ चुके थे। कुछ के अभी भी आ रहे थे। इतने बिजी कि घरों में पूजन करते हुए जो पूरियां खाने को दी जा रही थीं, उन्हें गेट से निकलते ही सही जगह पर फेंकने तक की फुरसत ना थी, वे यूं ही डस्टबिन के बाहर की ही ओर फेंकी जा रही थीं। तभी एक बच्ची जो उनमें सबसे छोटी थी, ने पूछा, ''अब कहां जाना है '' । कन्या ग्रुप की लीडर ने कहा, देखो अब नंबर तो सक्सेना आंटी के यहां जाने का है... मगर ... ! सब बच्चियां उसका मुंह देख रही थीं ।
वे सब बड़ी लड़की के ''मगर'' के बाद कुछ कहने का इंतज़ार कर रही थीं। लड़की आगे बोली, ''देखो ऐसा करते हैं कि सक्सेना आंटी के यहां चलते हैं मगर वहां खाना नहीं खायेंगे, उनसे कह देंगे कि पैक कर दो।'' छोटी बच्ची ने फिर पूछा, क्यों... खाना क्यों नहीं खायेंगे, उन्होंने तो मेरे मन पसंद की सब्जी और बूंदी का रायता भी बनाया है, मुझे तो वही खाना है ... ।
बड़ी लड़की ने कहा, मैंने खाने से थोड़े ही मना किया है पागल, खाना हम उनसे पैक करा लेंगे, फिर तू घर जाकर खा लेना।'' वो आगे बोली, हम खाना तो अग्रवाल आंटी के यहां का खायेंगे, वो साथ में महंगे गिफ्ट भी देती हैं और उनके ए. सी. भी तो है ना... डाइनिंग रूम में। सक्सेना आंटी तो बस कुरकुरे का पैकेट, एक पेंसिल बॉक्स और थोड़ी सी एक्लेयर्स दे देतीं हैं बस, जैसे कि ये कोई खजाना पकड़ा रही हों। वो 3 सेक्टर वाला चिंटू बता रहा था कि अग्रवाल आंटी ने तो इस बार स्मार्टफोन्स मंगाए हैं, कन्याओं को देने के लिए ... अब तुम्हीं बताओ, मैं सही कह रही हूं ना। ''सबने एक सुर से अपनी लीडर की हां में हां मिलाई।
सक्सेना आंटी के घर के सामने पहुंचते ही उन्होंने अपने जोरदार अभ‍िनय से बता दिया, ''आंटी, अभी भूख नहीं है, आप तो खाना पैक कर दो, हम घर जाकर खा लेंगे।''
परंपरा और देवी भक्ति की मारी बेचारी सक्सेना आंटी मन मसोस कर रह गईं कि कन्याओं के वे सिर्फ पैर ही पूज पायेंगीं और अपने सामने भोजन खिलाने के पुण्य से वंचित रह जायेंगी। क्या करतीं, उन्होंने खाना पैक किया, गिफ्ट भी पैक किया और पैर पूज कर हर कन्या को विदा किया।
अगले पांच मिनट में वे कन्याएं अग्रवाल आंटी के घर ए. सी. डाइनिंग रूम में विराजमान थीं। देवी जो ठहरीं, स्मार्ट फोन्स के पैकेट देखकर अचानक उनके भरे हुए पेट खाली हो गये थे। सक्सेना आंटी के तुच्छ पैकेट वो बाहर ही छोड़ कर आई थीं।
मेरी सामने घटे इस पूरे वाकये ने ना जाने कितने ही प्रश्नों को जन्म दे दिया... मसलन जिन्हें हम कन्या समझते हैं ...क्या वास्तव में  वे उस परिभाषा को पूरा करती हैं... , या कि भरे पेट पर किसी को भोजन कराने से क्या सचमुच पुण्य मिल सकेगा... क्या भोजन के साथ गिफ्ट्स का चलन छोटे छोटे बच्चों में लालच को जन्म नहीं दे रहा ... यदि इसी लालच के चलते बच्चे अपने फायदे, कम फायदे या ज्यादा फायदे के बारे में नहीं सोचेंगे क्या...  क्या करें जो कुछ 'हासिल' हो सके जैसी सोच के कारण क्या वो कन्याएं हम ढूढ़ पायेंगे जो निष्कपट, निश्छल हों, जिनके लिए सब बराबर हों चाहे वो सक्सेना आंटी हों या अग्रवाल आंटी ...  आदि।
प्रश्न बहुत हैं मगर उत्तर हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम उसे किस दायरे में रखकर देखना चाहते हैं।
खैर, ये वो सच है जो हमें अपना अंतस खंगालने पर विवश करता है कि इस हाइटेक युग में हम अपनी परंपराओं के साथ कहां खड़े हैं। और कहीं हम उन्हें ढोने के चक्कर में पुण्य की जगह कुछ और तो नहीं कमा रहे।

- अलकनंदा सिंह  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें