शनिवार, 26 अप्रैल 2014

सर्वत्र शक्ति है ॐ की


ओ ओंकार आदि मैं जाना । लिखि औ मेटें ताहि ना माना ।।
ओ ओंकार लिखे जो कोई । सोई लिखि मेटणा न होई ।।

ये चार पंक्‍तियां अपनी कही गई साखियों में र्निगुण सन्त - कवि  महात्मा कबीर ने बोलीं, गाईं और बताया कि उन्‍होंने जिस ईश्‍वरीय सत्‍ता को माना , ध्‍यान किया तथा  उसे  अपने शब्‍दों  के जादू में भी बांधा,वह एकमात्र अक्षर था ''  । उन्होंने एकमात्र ॐ को स्वीकारा,उसे ईश्‍वर माना और इस पर "साखियाँ" भी लिखीं ।  सनातन धर्म ही क्‍यों या फिर कबीर ही क्‍यों बल्‍कि भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को उतना ही महत्व प्राप्त है । जैसे कि बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग, जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता रहा है जिसके अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है जो कि दसों इंद्रियों को कंट्रोल करता है । जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है ।
गुरु नानक ने भी ॐ के महत्व को बताते हुए अपने अनुयायियों को बताया कि "ओम सतनाम कर्ता पुरुष निभौं निर्वेर अकालमूर्त" अर्थात् ॐ सत्यनाम जपनेवाला पुरुष निर्भय, बैर-रहित एवं "अकाल-पुरुष के" सदृश हो जाता है ।
"ॐ" ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर का प्रतीक । जो ईश्‍वर है जो अक्षर होते हुये भी अनाक्षर है, जो प्राणवान प्रकृति के हर कण, सांस में मौजूद है इसीलिए  जिसे प्रणव भी कहा गया है , वह एकमात्र  ॐ है ।
अक्षर का अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो । ऐसे तीन अक्षरों— अ उ और म से मिलकर बना है ॐ । यह प्रायोगिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्माण्ड में हर समय ॐ की ध्वनि प्रवाहित होती रहती है । हमारी हर सांस से ॐ की ही ध्वनि निकलती है और यही सांस की गति को नियंत्रित करती है ।
सनातन धर्म में तो सृष्‍टि के इस सबसे शक्‍तिशाली आदिअक्षर ॐ के बिना आराधना ही संभव नहीं, प्रकृति के साथ चलने और उसकी ध्‍वनि तक के लिए श्रद्धा प्रगट करने का इससे बड़ा उदाहरण और कहीं नहीं मिलेगा। उपनिषदों में बताया गया है कि किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है । किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है।  ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नहीं होता , चाहे उसका कितना भी जाप हो । मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है । माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है ।
अपनी इसी महत्‍ता के कारण ॐ का दूसरा नाम प्रणव ( परमेश्वर ) है । "तस्य वाचकः प्रणवः" अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता । छान्दोग्य उपनिषद में ऋषियों ने गाया है - "ॐ इत्येतत् अक्षरः" अर्थात् "ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।"
ॐ के महत्व को श्रीभगवदगीता गीता जी के आठवें अध्याय में बताया है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है । चूंकि ॐ  तीन अक्षरों से बना है अ उ म्  जिसमें "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना , "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना अर्थात् किसी जीवन की यात्रा में आदि से अंत तक ॐ की उपस्‍थिति होना । ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना । यही कारण है कि जब हम किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाते हैं तो वहाँ मौजूद अगाध ऊर्जा को ग्रहण करके स्वयं को हर आकांक्षा से मुक्‍त होता हुआ महसूस करते हैं, एकदम किसी परिंदे की भांति ।
उपनिषदों से लेकर कबीर या कबीर से लेकर उपनिषद तक अपनी उपस्‍थिति बताता या इसे यूं  भी कहें कि ॐ मात्र एक अक्षर नहीं बल्‍कि अ,,म से बनी जीवन को संचालित करती वह वायु है जो अपनी यात्रा को अनादिकाल से आज तक और आगे भी अनादिकाल तक चलाती रहेगी ।

- अलकनंदा सिंह



शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

निजी कंपनियां क्या देश से ऊपर हैं ?

आज जब देश में लोकसभा चुनावों को लेकर चुनाव आयोग हर संभव प्रयास कर रहा है कि मतदान प्रतिशत बढे़ और इसके लिए अनेक सुविधाओं के साथ सुरक्षा के भी हाईटेक बंदोबस्‍त हो, तब अत्‍यधिक शिक्षित व सुविधा संपन्‍न वर्ग द्वारा मतदान को लेकर लापरवाह रवैया अपनाया जाना बेहद शर्मनाक ही कहा जायेगा, वह भी व्‍यवसायिक  स्‍वार्थों के लिए। मौजूदा मामला छठे चरण में कल चेन्‍न्‍ई  की कुछ आईटी कंपनियों द्वारा अपने कर्मचारियों को मतदान न करने देने से संबंधित है।
कल जब छठे चरण के लिए देश की कुल 117 सीटों में से तमिलनाडु की 39 सीटों पर मतदान हो रहा था, तब चेन्‍नई की पांच आई टी कंपनियां अपने कर्मचारियों को काम पर लगाए हुए थीं। गौरतलब है  कि चुनाव आयोग निष्‍पक्ष और पूर्ण मतदान के लिए किसी भी सरकारी व गैर सरकारी कर्मचारी को मतदाता स्‍थल तक जाने की छूट के लिए सवेतन छुट्टी देता है ताकि मतदाता के अधिकार को सुनिश्‍चितत: संपन्‍न कराया जा सके। चेन्‍न्‍ई के शेलिंगनेल्‍लूर के एलकॉट आईटी पार्क में स्‍थित टेक महिंद्रा, एचसीएल, सोडेक्‍सो, विप्रो और वोल्‍टाज ने सवेतन अवकाश होने के बावजूद अपने कर्मचारियों को जान-बूझकर काम पर बुलाया। इसकी शिकायत कुछ कर्मचारियों ने जब चुनाव आयोग से की तो अधिकारियों ने आईटी पार्क का दौरा किया और खुले ऑफिसों को न केवल बंद कराया बल्‍कि कंपनियों के खिलाफ मुकद्दमा भी दर्ज़ कराया। आयोग की तत्‍परता से इन कंपनियों के लगभग 2 हजार कर्मचारी मताधिकार का प्रयोग कर पाये। आयोग के नोडल अधिकारी ने इन कर्मचारियों को वापस भेजने के बाद कंपनी के मैनेजमेंट को सख्‍त ताकी़द की कि तत्काल गेट बंद कर दिये जाएं और अगली शिफ्ट भी ना लगाई जाये।
यह संभवत: पहला मौका है जब मताधिकार के प्रयोग को लेकर आयोग इतना सख्‍त हुआ कि मतदान के दिन भी दफ्तर खोलने वाली कंपनियों के खिलाफ पुलिस में भी शिकायत दर्ज़ कराई गई है। हालांकि कंपनियों के अधिकारी सफाई दे रहे हैं कि कार्यालय तो बंद था, कुछ ज़रूरी कार्य के लिए कर्मचारियों को थोड़ी देर के लिए ही बुलाया गया था ।
अब ये सफाई किसी के गले नहीं उतरने वाली क्‍योंकि यह सर्वमान्‍य धारणा भी उस हकीकत से ही बनी है कि निजी कंपनियां भले ही कर्मचारियों को मोटे-मोटे एनुअल पैकेजे देती हों मगर उनके जीवन से इन पैकेजेज  की एक-एक पाई वसूल कर लेती हैं और राष्‍ट्रीय पर्वों पर छुट्टी को वे अपना वक्‍त जाया करना ही मानती हैं । इसीलिए सवेतन छुट्टी कंपनियों को रास नहीं आती ।
बहरहाल, चुनावों को निष्‍पक्ष्‍ा और भारी प्रतिशत के साथ कराने का चुनाव आयोग का जो उद्देश्‍य था, वह काफी हद तक सफल हो रहा है। समाज के हर वर्ग को प्रोत्‍साहित भी कर रहा है कि हम चुनाव आयोग की पूरी व्‍यवस्‍था को सराहें। निश्‍चित ही यदि ऐसा नहीं होता तो देश के जितने भी राज्‍यों की तमाम सीटों पर मतदान का जो प्रतिशत उत्‍तरोत्‍तर बढ़ता जा रहा है, वह इतना ना होता। चुनाव आयोग के ये प्रयास काबिले तारीफ हैं और पिछले चुनावों को देखते हुए अपेक्षाकृत अधिक सफल भी। हमारे संस्‍थानों को देश का भविष्‍य रचने वाले इस कार्य में पूरे मनोयोग से साथ देना चाहिए ।


- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

मोरैलिटी और शॉपेनहॉवर...

एक जर्मन दार्शनिक साहित्‍यकार व चिंतक थे - आर्थर शॉपेनहॉवर । शॉपेनहॉवर का अंग्रेजी में अर्थ होता है- बहुविकल्‍पी । मतलब एक शख्‍स है आर्थर जिसके कई विकल्‍प संभावित हैं । वे अपनी पुस्‍तक 'The World as Will and Representation (German: Die Welt als Wille und Vorstellung)' के लिए जाने गये मगर वे उनके अपने संभावित विकल्‍पों को ढूढ़ने में  हमेशा लगे रहे । उन्‍होंने इस पुस्‍तक  में भी उन्‍होंने हमेशा असंतुष्‍टि को परे रखने के लिए ही संतुष्‍टि की ओर भागते रहने की 'जद्दोजहद' दिखाई है  । सच तो ये है कि हम सभी असंतुष्‍टि में जीते हुये संतुष्‍टि की ओर बड़े ही असंतुष्‍ट तरीकों के साथ दौड़ रहे हैं , बस दौड़ते जा रहे हैं , मंजि़ल की तलाश की ओर । किसी की तलाश 'में' नहीं तलाश 'की ओर'...।
शॉपेन हॉवर अपनी जेब में हमेशा सोने के कुछ सिक्‍के रखा करते थे । शॉपेनहॉवर की तरह हम में से भी कई लोग अपनी अपनी सोचों को अपनी अपनी जेबों में सोने के बेशकीमती सिक्‍के की तरह यानि छोटे छोटे शॉपेनहॉवर्स  (विकल्‍प)  को रखे घूम रहे हैं, एक वजन के साथ ढूढ़ रहे हैं अपने अपने विकल्‍प कि कोई तो मिले हम जैसा...जिसकी सोच हमारे जैसी हो ।शॉपेन हॉवर को यह दिक्‍कत इस लिए भी आई क्‍योंकि वह जिस सोच को तलाश रहे थे ,वह मोरैलिटी की सोच थी।
शॉपेनहॉवर बरसों तक उस एक घड़ी का, उस एक क्षण का इंतज़ार करते रहे कि जब और जिस घड़ी वह अपनी जेब में पड़े सोने का सिक्‍का दान कर सकें । वह घड़ी उनकी ज़िंदगी में कभी नहीं आई। सिक्‍का उसकी जेब में ही पड़ा रहा  और ज़िंदगी की आखिरी सांस तक उसे सिक्‍के का बोझ ढोना  पड़ा । शायद हमारी भी कइयों की यही तक़दीर है कि ...मोरैलिटी को अपने ही आंकलन के अनुसार खोज रहे हैं हम... ।
शॉपेन हॉवर ने सोचा था कि वह उस सोने के सिक्‍के को किसी ऐसे अंग्रेज को दान करेगा जो औरतों , घोड़ों और कुत्‍तों की बात ना करता हो । चूंकि उस समयकाल में भी किसी भी पुरुष के लिए अपने 'दंभ' को प्रदर्शित करने के लिए  औरतें, संपत्‍ति को प्रदर्शित करने के लिए घोड़े और इन दोनों के रक्षण के लिए कुत्‍तों की आवश्‍यकता होती थी, सो उनकी मोरैलिटी इन्‍हीं की चर्चाओं तक सीमित थी उनका यही मापदंड था कि कैसी औरत, कितने घोड़े और कितने कुत्‍ते...। 
और अंत तक शॉपेनहॉवर को  ऐसा एक भी व्‍यक्‍ति नहीं मिल सका जिसे वो अपनी सोच अपने सोने के सिक्‍के दान दे सकते और वह सोने के सिक्‍के के बोझ के साथ मर गये... ।
हम सब जो बात  करते हैं  मोरैलिटी की... तो इसके सीमित अर्थों और सिकुड़े हुये दायरों और सिमटे हुये घेरों की भी बात करना जरूरी हो जाता है कि जो  बहुसंख्‍यकों की सोच में , आदतों में शुमार है, वह स्‍वीकृत माना गया और जो  गिने - चुनों के चिन्‍तन में आया  , वह अस्‍वीकृत कर  दिया गया । समाज के सारे कायदे कानून बहुसंख्‍यक ही बनाते हैं , मगर सोच को ...? सोच तो सबकी अपनी होती है ...वह सोच, जो यह जानने का माद्दा रखती है कि कौन मोरल है और कौन इममोरल...।
आज  मोरैलिटी को बहुसंख्‍यकों की सोच बताने का प्रयास किया जा रहा है यह सोच सिर्फ औरतों व अन्‍य एसेट्स पर आकर रुक जाती है, वो भूखों, गरीबों और असहायों को कुचलने की इच्‍छा रखती है। यह सोच ही कहां है , यह तो जुनून है, इसमें मोरैलिटी कहां है । यह तो हासिल कर लेने का नाम है ।  जिस मोरैलिटी की खोज में शॉपेनहॉवर ताज़िंदगी सोने के सिक्‍के के वज़न के साथ चलते रहे...और वह औरतों-घोड़ों-कुत्‍तों वाली बहुसंख्‍यक सोच में से एक मोरल वाला व्‍यक्‍ति ना खोज पाये तो आज ...आज के संदर्भ में  मोरैलिटी को ढूढ़ना बेहद कठिन तो है ही।
आज भी औरतें बहुसंख्‍यक पुरुषों की नज़र में एसेट हैं, शरीर हैं मगर वे बहुसंख्‍यक सोच के दबाव के कारण अपनी ही कोई सोच नहीं बना पा रही ,  तो अब समय आ गया है कि जब हम सब अपने अपने हिस्‍से की सोचों के सिक्‍के,  मोरैलिटी के उन छोटे छोटे हिस्‍सेदारों के लिए भी बचाकर रख दें जो प्रकृति ने ही बनाये हैं, उनकी मोरैलिटी उन्‍हें तय करने दें , फिर चाहे वो औरतें हों या समाज के आखिरी पायदान पर खड़े मजलूम । तब निश्‍चित ही असंतुष्‍टि से संतुष्‍टि की ओर जाने का जो असंतुष्‍ट रास्‍ता है वह रास्‍ता सुगम और सुगंधित होगा हमारी इच्‍छाओं हमारे मोरल्‍स और हमारे छोटे छोटे शॉपेनहॉवर्स (विकल्‍प) के साथ ।
- अलकनंदा सिंह




शनिवार, 19 अप्रैल 2014

बौद्धिक रियासत का निर्वासित योद्धा: मारर्केज़

लोक यानि जड़ें और जड़ों का अर्थ है अपने ज़हन में झांकना या अंतर्मन की ओर देखना। व्‍यक्‍ति, कला या समाज कोई भी ,जो अपने लोक से कट जाये वह अस्‍तित्‍वहीन हो जाता है और जो अस्‍तित्‍वहीन हो जाये उसे भला कोई क्‍योंकर याद करेगा। इसका सीधा सीधा मतलब ये रहा कि जो अपनी जड़ों की ओर नहीं देखते, वो अपने ज़हन में भी नहीं झांकते और ऐसा करते हुए वे अपने ही अस्‍तित्‍व को तलाशते रह जाते हैं, बिल्‍कुल सांसविहीन जीवन की तरह । लोक में समाई है हमारे शब्‍दों की भी दुनिया । हमारा ज़हन या अंतर्मन भी वही बोलता है जिसमें वह पलता है, पोसा जाता है, संस्‍कारों के रास्‍ते वह अपने दुख और सुखों को जानता है , उन्‍हें महसूस करते हुये अनुभव करते हुये बड़ा होता है । फिर जब यही अनुभव शब्‍दों में ढलते हैं तब पैदा होता है  कोई एक गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ , जो अपने कालजयी उपन्यास 'वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीट्यूड - One Hundred Years of Solitude (Spanish: Cien años de soledad) ' को गढ़ते हुये स्‍वयं बुएंडिया फैमिली के मुखिया जोस अरकाडियो बुएंडिया बनकर  दुनिया को यह बता देता है कि हमारे लोकजीवन में ही कई ऐसी सच्‍चाइयां दबी हुई हैं  जो  कथित प्रयोगवादी और संभ्रांत जीवन का आधार रही है , वे नींव के वो पत्‍थर हैं जिनपर कई मारकेज़ छपते चले गये होंगे चुपचाप ,एकदम दम साधे... ।
यूरोपीय देशों की ज़हीन जीवन शैली और प्रयोगों पर आधारित सभ्‍यता वाले  अपने से एकदम उलट मैक्‍सिकन और लैटिन अमरीकी सभ्‍यता को 'अनपढ़ों-गंवारों की सभ्‍यता' मानते रहे।इसी चलन को तोड़ा एक लेखक ने   जो जीवन जीने के तौर तरीकों और संस्‍कारों के नंगे सच को लेखनीबद्ध करते गये । ये थे गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ जिन्‍होंने शायद ही कभी सोचा हो कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी ऐसे माइलस्‍टोन्‍स गढ़ के जा रहे हैं जो साहित्‍य ही नहीं जीवन के अंधेरे सचों से दोचार होने में उन्‍हें अपने ''एकांत'' की ताकत का अनुभव करायेंगे।
अब वो ही गैब्रियल गार्सिया मारकेज़ नहीं रहे जिन्‍हें कभी पाठकों ने कल्पनाओं का जादूगर तो कभी आलोचकों ने मैजिक ऑफ़ रिलिजन कहा लेकिन स्‍वयं मार्खेज अपनी नज़र में एक ट्रांसलेटर से ज्‍यादा खुद को कुछ नहीं समझते थे। वो कहते थे, ‘लोगों की नज़र में जो शब्‍दों का कमाल है , वह लैटिन अमरीकी जीवन का ऐसा नंगा सच है जो बुलंदियों पर रहने वालों को आसानी से नज़र नहीं आता, मैंने तो इस खौफनाक रोमांचक सच को प्रस्तुत भर किया है,बस। मैं एक जिम्मेदार दर्शक की भूमिका निभा रहा हूं इस सच को सामने लाने में, इसके अलावा कुछ नहीं... । मैंने जो देखा,जो सुना, जो एहसास किया, उसे बस ज्यों का त्यों पूरी ईमानदारी के साथ दुनिया के सामने रख दिया|’ लैटिन अमरीका से बाहर की जो दुनिया है, वह भी इस सच से परिचित हो, मेरी यही कोशिश रही है और आगे भी रहेगी।
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुये कोलंबिया के इस महान उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के कालजयी उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालीट्यूड’ के लिए न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था  कि यह  ‘बुक ऑफ जेनेसिस’ के बाद  साहित्य की पहली कृति है जिसे पूरी मानव जाति को पढ़ना चाहिए ।
यूं तो मारकेज़  का सफर १९५० में रोम और पेरिस में स्पेक्टेटर के संवाददाता के रूप में शुरू हुआ जो १९५९ से १९६१ तक क्यूबा की संवाद एजेंसी के लिए हवाना और न्यूयार्क में काम करने तक चला। पत्रकार होने के साथ साथ वह एक निर्वासित योद्धा थे, जो पत्रकारिता के कारण ही अपनी बौद्धिक रियासत के लिए जंग लड़ते रहे, वामपंथी विचारधारा की ओर झुकाव के कारण उन पर अमेरिका और कोलम्बिया सरकारों द्वारा देश में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगाया हुआ था, लेकिन इसका उनके जीवन और चेहरे में कभी मलाल नहीं दिखा । संभवतः उनका यथार्थवाद इसीलिए इतना जीवंत था क्योंकि वो खौफनाक खूनी जीवन कल्पना में नहीं उतार रहे थे उसे यथार्थ में जी रहे थे ।
'लीफ स्टॉर्म एंड अदर स्टोरीज' उनका पहला कहानी-संग्रह १९५५ में प्रकाशित हुआ । इसकी कहानियां खौफ के सच से भरी थीं, 'नो वन राइट 'टु द कर्नल एंड अदर स्टोरीज' और 6आइज़ ऑफ ए डॉग' संग्रहों के साथ उनके उपन्यास सौ साल का एकांत (वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीच्यूड) को १९८२ में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनके तिलिस्‍मी यथार्थवाद के ग्रे वर्ल्‍ड ने यूरोपीय वैज्ञानिकों को विवश किया कि वे छायाओं में भी जीवन को मानें और  तलाशें। मार्खेज का बचपन अपने नाना नानी के घर उत्तरी कोलंबिया के एक बड़े ही ख़स्ताहाल शहर आर्काटका में गुजरा था इसीलिए वह अपने लेखक होने का श्रेय अपनी नानी और किस्से कहानियों से भरी स्थितियों को देते हैं जिनमें वो पले, बढ़े। शायद इसीलिए मारकेज़ हमें यानि भरतीयों के अधिक करीब दिखाई देते हैं, जहां कहानीकारों और उपन्‍यासकारों ने अपनी रचनाओं में लोक जीवन को दादी-नानी की नज़रों से व्‍यक्‍त किया और करवाया। भारतीय सभ्‍यता में रची बसी दादी - नानी की कहानियों का अपनापन क्‍या  हम भुला सकते हैं। हम भारतीयों की भांति ही मारकेज़ की कहानियां हमें बताती हैं कि अपने लोकजीवन से जुड़ा होना, उसके अच्‍छाइयां और बुराइयां दोनों ही प्रगति के हर सच को जानने का एक बढ़िया साधन हो सकती हैं। लोक से त्‍याग करके पाई हुई प्रगति अंतर्मन को खुश नहीं रख पायेगी और हम स्‍वयं से दूर  होते  जायेंगे, ये निश्‍चित है। हम लोक जीवन के मार्मिक अनुभवों को जियें और उन्‍हें प्रगति के लिए सहायक मानें ना कि प्रयोगवादी बनकर अपनी जड़ों का ही तिरस्‍कार करें। फिलहाल ऐसा हो रहा है तभी  तो नक्‍सली जैसी समस्‍यायें देश को ग्रसित किये जा रही हैं।
आज मारकेज़ को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि तभी पूरी होगी जब हम अपनी नींवों का आदर और उनकी जीवटता से सबक लेंगे।
और अंत में मारकेज़ का ही ये सूत्रवाक्‍य कि -

"It’s enough for me to be sure that you and I exist at this  moment."

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

बुद्धिमत्‍ता के अर्थ बदल रहे हैं...?

इंसान अपने भविष्‍य को लेकर हमेशा ही शंकालु रहा है। आगत का स्‍वागत करने की सीख सदा दी तो जाती रही है मगर हकीकत में इसे कभी अपनाया नहीं गया । आगत का स्‍वागत हर वक्‍त शंकाओं के साथ होता है, वो भी बिना किसी ठोस कारण के।
कुछ ऐसा ही माहौल तैयार करने की कोशिश की जा रही है आजकल भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार नरेंद्र मोदी को लेकर। राजनैतिक लोग अगर उनकी आलोचना या प्रशंसा करें तो समझ में भी आता है मगर जब इस बहती धारा में बुद्धिजीवी वर्ग भी अपने हाथ धोने लगे और खुद की गंभीरता व निष्‍पक्षता पर खुद ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने लगे तो उनकी बुद्धिमत्‍ता को तमगों से अलग करके देखने पर हमारा विवश होना स्‍वाभाविक है।
तो क्‍या बुद्धिजीवी वर्ग अपनी स्‍थापित मान्‍यताएं बदल रहा है...क्‍या समय के साथ बुद्धिमत्‍ता के अर्थ बदल रहे हैं...?
हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता और मछुआरों के विषय को उठाने वाले लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार आर. एन. जोए डीक्रूज को नरेंद्र मोदी के समर्थन में फेसबुक पर पोस्ट डालने के बाद जबर्दस्त विरोध और धमकियों का सामना करना पड़ा और उन्हें धमकी भरे मेल भेजे गए। इतना ही नहीं, उनकी पोस्ट के विरोध में लेखन क्षेत्र से ही जुड़े कुछ नामचीन लोगों ने तो चेतावनी तक दे डाली। कुछ ने उन्‍हें धमकी दी कि उनके नये ताज़ा उपन्‍यास ‘आझी सूझ उलागु’ के अंग्रेजी अनुवाद को, जो कि अभी प्रकाशन की प्रक्रिया में है, रोका जा सकता है।
गौरतलब है कि मछुआरों के 100 साल के इतिहास पर लिखे गए उनके उपन्यास 'करकई' के लिए उन्हें वर्ष 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था और उनके ताजा उपन्यास 'आझी सूझ उलागु' को वर्ष 2005 में राज्य सरकार द्वारा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का पुरस्कार भी मिला है।
आज़ादी के बाद संभवत: ऐसा पहली बार ही होगा किसी 'एक व्‍यक्‍ति' की आलोचना के लिए देश से लेकर विदेश तक हर कोई अपना गला खंखार रहा है और अब अन्‍य बुद्धिजीवियों के साथ-साथ साहित्‍यकारों का इसमें कूदना, फटे में टांग अड़ाने जैसा है।
निश्‍चित ही साहित्‍यकारों को समाज, राजनीति  जैसे विषय पर बोलना चाहिए मगर डीक्रूज के साथ जो हो रहा है , वह किसी पवित्र उद्देश्‍य से नहीं बल्‍कि स्‍वयं को पब्‍लिसाइज करने के लिए और दबंगई दर्शाने के लिए किया जा रहा है, जो कि साहित्‍य जगत के लिए बेहद शर्मनाक है।
गोवा में जब सिर्फ मोदी को चुनावी अभियान समिति का अध्‍यक्ष बनाया गया तभी से बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग मोदी-विरोध के सहारे अपनी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता को पब्‍लिसाइज करने में लग गया। यहां तक कि प्रतिष्‍ठित पुरस्‍कार प्राप्‍त व्‍यक्‍ति भी इस आलोचनाई परेड में शामिल हो चुके हैं जिसमें मशहूर अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन के बाद  साहित्‍यकार यूआर अनंत मूर्ति भी हैं, जिन्‍होंने यहां तक कह दिया था कि यदि मोदी देश का नेतृत्‍व संभालते हैं तो वे देश ही छोड़ देंगे। इससे एक बात तो स्‍पष्‍ट हो गई कि सोच भले ही उनकी सीमित और एक ही पक्ष देखने की आदी हो मगर अपने इस तिकड़मी बयान से वे साहित्‍यिक जमात में बतौर पक्‍के सेक्‍यूलरिस्‍ट छा तो गये ही। हम सब बखूबी जानते हैं कि देश के किसी भी क्षेत्र में प्रतिष्‍ठित पुरस्‍कार प्राप्‍त कर लेना बौद्धिकता की श्रेष्‍ठता का पैमाना नहीं हो सकता क्‍योंकि... ''अगर ऐसा होता तो नोबेल पुरस्‍कार लेकर अमर्त्‍य सेन अर्थशास्‍त्र के चाणक्‍य बन चुके होते, और उन्‍होंने देश तो क्‍या दुनिया से गरीबी को फ़ना कर दिया होता...अगर ऐसा होता तो नाकामी की महागाथा लिखने के लिए मनमोहन सिंह लेखकों के हीरो ना बने होते...।''
बहरहाल, बहुत सारे अगर मगर के बीच इतना तो कहा ही जाना चाहिए कि ''नरेंद्र मोदी बनाम सभी'' का यह शोर साहित्‍यकारों के क्षुद्र मानसिकता का भी विच्‍छेदन किये दे रहा है और इससे उनके सारे कलुष सामने आने लगे हैं, इससे उनकी ख्‍याति बटोरने की तिलिस्‍मी तिकड़में भी नमूदार हो गई हैं । आम पाठक वर्ग को भी तो मालूम हो कि हमें जो आदर्श की सीख देते हैं, समाज की कुरीतियों पर प्रहार करते हैं , वह असल में अपने ही किसी साथी या मछुआरे तबके से आने वाले लेखक को नीचा दिखाने में भी पीछे नहीं रहते । उपन्यासकार आर. एन. जोए डीक्रूज इसका प्रत्‍यक्ष प्रमाण हैं ।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि दक्षिण से लेकर गुजरात तक मछुआरों पर शोध और फिर उसे उपन्‍यास में ढालने वाले डीक्रूज ने जब नरेंद्र मोदी सरकार की प्रशंसा लिखी और वर्ष 2013 में साहित्‍य अकादमी से पुरस्‍कृत भी हुये, तो तब  साहित्‍य के कियी क्षत्रप ने कोई ऐसा प्रश्‍न क्‍यों नहीं उठाया मगर जैसे ही मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्‍मीदवार बनाये गये तब अचानक सब एकसाथ कथित रूप से सेक्‍यूलर हो उठे । साहित्‍य के क्षेत्र में मौजूद मलिनता को साफ करने के लिए कौन सामने आयेगा, ये तो अभी नहीं कहा जा सकता मगर इतना अवश्‍य है कि छद्म धर्मनिरपेक्षता के जितने भी पैमाने  साहित्‍य में अभी तक स्‍थापित रहे थे , वे सभी अपनी असली रंगत में आ रहे हैं, नरेंद्र मोदी के बहाने ही सही...सच में समय बदल रहा है...।
 - अलकनंदा सिंह

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

...अब जद में आया तालियों से आगे का जहां

अंग्रेजी की एक प्रचलित लोक-कहावत है कि-

The third Gender: They clap loudly but not able to produce any thing. They can always deceive but can't conceive .


सदियों से स्‍थापित ये एक ऐसा सूत्रवाक्‍य है जो प्राकृतिक विकृतियों व लैंगिक कमियों के साथ पैदा हुये व्‍यक्‍ति-विशेषों के पूरे के पूरे वज़ूद को परिभाषित करता आया  है। किसी नाकारा व्‍यक्‍ति को तो हम सीधे ही कह देते हैं कि ये तो हिजड़ा है, इससे कुछ नहीं होने वाला । हमेशा ही इस सूत्रवाक्‍य को कुछ इस तरह प्रयोग किया  गया कि यह नाकाबिलों की पहचान बन गया और उन्‍हें दुत्‍कारने का एक माध्‍यम भी। जो लैंगिक कमियां उनकी प्रकृतिक कमजोरी थीं, वे ही उन्‍हें समाज में आत्‍मसमान के साथ जीने से वंचित रखने में लगीं रहीं।
अब वर्षों की अधिकार पाने की जद्दोजहद रंग लाई और कल सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से 'हारमोनल असंतुलन के मारों' के लिए ईश्‍वर बनकर आया, वह न केवल देश का बल्‍कि विश्‍व का ऐसा सबसे बड़ा फैसला है जिसने पूरी की पूरी 'एक अलग कौम' बना दिये गये समाज के  वंचितों को सामान्‍य जीवन की राह दिखाई है।
जी हां, कभी किन्‍नर तो कभी हिजड़े कहे जाने वाले, स्‍त्री और  पुरुष के अलावा अब ट्रांसजेंडर्स को भी वही सारे हक हासिल होंगे जो कानूनी तौर पर देश के किसी भी नागरिक को मिलने चाहिये। समाज की बेहतरी और लाखों किन्‍नरों को देश की  मुख्‍यधारा में लाने की यह कोशिश अभी सुप्रीम कोर्ट से निकली भर है, मगर है बड़ी महत्‍वपूर्ण । ये भी सच है कि सामाजिक रिश्‍तों में अभी इसे धरातल पर लाने के  लिए लंबी लड़ाई लड़नी होगी।
लांक्षन के रूप में कहा जाने वाला यह शब्‍द अब समाज में इज्‍ज़त  पा सकेगा, कम से कम कानूनी रूप से तो रास्‍ता साफ ही हो  गया है। अपनी पैदाइश से लेकर परवरिश और जीवन के हर अच्‍छे-बुरे कदम के लिए दुत्‍कारे जाने वाले हिजड़े अब सुप्रीम कोर्ट से आगे की राह बनाने के लिए कमर कस लें, क्‍योंकि सुप्रीम कोर्ट से भी ज्‍यादा कठिन है  समाज में सम्‍मान पाने की राह।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने कल अपने इस अहम फैसले में किन्नरों या ट्रांसजेंडर्स को तीसरे लिंग के रूप में अलग पहचान दे दी है। इससे पहले उन्हें मजबूरी में अपना जेंडर 'पुरुष' या 'महिला' बताना पड़ता था। सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही ट्रांसजेंडर्स को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के रूप में पहचान करने के लिए कहा है ताकि सरकारें उन्‍हें उनका हक दिलाने के जरूरी उपाय करें।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेते वक्त या नौकरी देते वक्त ट्रांसजेंडर्स की पहचान तीसरे लिंग के रूप में की जाए। सुप्रीम कोर्ट जस्‍टिस के. एस. राधकृष्‍णन ने कहा कि किन्नरों या तीसरे लिंग की पहचान के लिए कोई कानून न होने की वजह से उनके साथ शिक्षा या जॉब के क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
यह पहली बार हुआ है, जब तीसरे लिंग को औपचारिक रूप से पहचान मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीसरे लिंग को ओबीसी माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इन्हें शिक्षा और नौकरी में ओबीसी के तौर पर रिजर्वेशन दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें तीसरे लिंग वाली कम्युनिटी के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाएं और उनके प्रति समाज में हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इनके लिए स्पेशल पब्लिक टॉइलट बनाए जाएं और सात ही उनकी हेल्थ से जुड़े मामलों को देखने के लिए स्पेशल डिपार्टमेंट बनाए जाएं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर कोई अपना सेक्स चेंज करवाता है तो उसे उसके नए सेक्स की पहचान मिलेगी और इसमें कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।
एक अनुमान के मुताबिक इस निर्णय के बाद लगभग 2000 साल से उत्‍पीड़न झेल रहे लगभग 10 लाख हिजड़ों को  सामान्‍य व्‍यक्‍ति की तरह जीने का अधिकार मिला है। प्राकृतिक प्रकोप मानकर जिस कमी को अपमान का पर्याय बना दिया गया था, वही लैंगिक कमी अब मां-बाप-परिजनों के लिए शर्मिंदगी की वजह नहीं बनेगी, इसका उन परिवारों को कितना संतोष मिला होगा जिन्‍होंने एक शारीरिक कमी के कारण अपने बच्‍चे त्‍याग दिये या जिन बच्‍चों ने अपने परिवारीजनों के चेहरों पर जबरन त्‍यागे जाने की लाचारी और बेबसी देखी ।
फिलहाल तो ये निर्णय मील का पत्‍थर साबित होगा क्‍योंकि पारिवारिक समारोहों में भीख की तरह नेग मांगने, अप्राकृतिक यौन व्‍यवहारों के लिए कमोडिटी बनने, सामान्‍य व्‍यक्‍तियों द्वारा हिकारत से देखे जाने की रोजमर्रा की लगभग जानलेवा समस्‍याओं से बचा कर सुप्रीमकोर्ट ने इन सभी ट्रांसजेंडर्स के लिए समाज के तानेबाने में फिट होने के लिए नींव तो रख ही दी। हमें तो लक्ष्‍मीनारायण त्रिपाठी और कल्‍कि सुब्रह्मण्‍यम जैसे ट्रांसजेंडर्ड हीरो को दाद देनी चाहिए कि सन् 2012 से सुप्रीम कोर्ट में जिन अधिकारों की लड़ाई वे लड़ रहे थे, उसे आखिर एक मुकाम मिल गया। इस संबंध में दोनों एक ही बात कहते हैं कि अभी तो सुधारों की नींव का ये पहला पत्‍थर है, रास्‍ता तो समाज में ट्रांसजेंडर्स की स्‍वीकार्यता और उन्‍हें बराबरी का हक पाने तक का बनाना है ताकि न तो हम ट्रांसजेंडर्स ही और ना ही हमारे परिवार हमें अभिशाप समझें।

अब उस सूत्रवाक्‍य को भी बदलने का समय आ गया है जो कहता है कि-

''वे सिर्फ जोर से ताली बजा सकते हैं,  कुछ पैदा नहीं कर सकते...
वे स्‍वयं एक धोखा हैं क्‍योंकि वे कभी गर्भधारण नहीं कर सकते...
वे धरती पर बोझ हैं जिन्‍हें बस ढोया जा सकता है...इनसे मुक्‍ति नहीं... ''।
-अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

सोऽहमास्मि की ओर ले जाते हैं हनुमान

हनुमान जयंती के अवसर पर - 
आज ही के दिन अर्थात् चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को भगवान श्रीराम के भक्‍त  हनुमान का जन्म हुआ था।  बल , बुद्धि और अनुशासन के संग भक्‍ति व निरअहंकारी शक्‍ति वाले भक्‍त हनुमान का सनातन धर्म और भगवान श्रीराम के अनुयाइयों में  एक विशेष स्‍थान है, हनुमान श्रीराम के बिना और श्रीराम हनुमान के बिना अधूरे हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार चैत्र माह की पूर्णिमा पर भगवान श्रीराम की सेवा के उद्देश्य से भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्र ने अंजना के घर हनुमान के रूप में जन्म लिया था, इसीलिए उन्‍हें भगवान शिव का अवतार  माना गया है परंतु भगवान शिव ने  पवन देव के रूप में अपनी रौद्र शक्ति का अंश यज्ञ कुंड में अर्पित किया था और वही शक्ति अंजनी के गर्भ में प्रविष्ट हुई थी  इसीलिए हनुमान को पवनपुत्र कहा गया।
शक्‍ति और भाव का ऐसा अद्भुत संयोग कि जिसमें बल भी हो और बुद्धि भी, अनुशासन भी हो और चंचलता भरी भक्‍ति भी, जिसमें अपार बल हो परंतु कतई निरअहंकार का भाव भी...वही हनुमान हैं। इन गुणों का इतना अद्भुत साम्‍य हनुमान के अतिरिक्‍त और किसी के लिए नहीं बताया गया।
श्री हनुमान की शक्‍तियों का आध्‍यात्‍मिक पक्ष जानना कोई बहुत मुश्‍किल नहीं हैं इसीलिए जो अपने जीवन के 'अंतश्‍चतुष्‍टय' को जान पाया, बता पाया ...वही हनुमान है । सामान्‍य से सामान्‍य व्‍यक्‍ति भी जान सकता है कि ये 'अंतश्‍चतुष्‍टय' क्‍या है ?अर्थात् मन, चित्‍त व बुद्धि तीन अवयवों के 'साथ' और इन तीनों के 'बीच' उपस्‍थित रहने वाला चौथा अवयव जो अहंकार है, उस अहंकार को जिसने सोऽहमस्मि तक पहुंचाया, जिसने अहं को आत्‍मा में विलीन कर  दिया...वह हनुमान है।
अब देखिए ना, अहंकार ही तो वह विभाजक अवयव है जो रामायण काल में दो बलिष्‍ठ पात्रों को एक दूसरे के विपरीत खड़ा करता है... और वे हैं हनुमान तथा रावण ।
रावण अहंकारी है, कहता है -
‘मेरी इन बड़ी भुजाओं ने कैलाश पहाड़ उठाया है,
दानव मय इंद्र, कुबेर, वरुण, इन बाणों से थर्राया है।’
अर्थात् सफलता का हर पक्ष अहं से सराबोर है। दूसरी ओर हनुमान हैं जो प्रत्येक सफलता के पीछे ईश्वरीय कृपा को श्रेय देते कहते हैं-
‘लांधि सिंधु हाटक पुर जारा, निशिचर गन विधि विपिन उजारा,
सो सब तब कृपालु प्रभुताई, नाथ न कछू मोर प्रभुताई।’
प्रत्‍येक कार्य के लिए निर्धारित है हमारी भूमिका, हम जो कि निमित्तमात्र हैं परंतु  अहंकार में मनसा, वाचा, कर्मणा जो भी सोचते हैं, उसके कारण स्वयं के अस्तित्व में निहित ईश्वरीय सत्ता के महत्व को नहीं समझ पाते। निश्‍चित ही ‘अहं’ मन, बुद्धि और चित्त से ऊपर है, बलशाली भी और प्रभावी भी इसीलिए यह प्रश्‍न हमेशा बना रहा कि क्या अहंकार मिट सकता है? मन, बुद्धि, चित्त जितने महत्वपूर्ण हैं... उतना ही महत्वपूर्ण अहं है । अहं यानी 'मैं' और मैं को आत्म-तत्व में विलीन कर देना अर्थात अहं का एकात्म ही ‘सोऽहमस्मि’ बना देता है । जब तक 'मैं' को शरीर तक सीमित माना गया, तब तक अहं रावण की तरह शक्ति को क्षीण करने वाला तत्व रहा । जब वही अहं आत्मतत्व में समाहित हुआ,‘सोऽहमस्मि’ बन गया.. तो हनुमानजी के लिए शक्ति संवर्द्धक हो गया और अहं ही देवत्व हो गया।
आज हनुमान जयंती पर अहं के संदर्भ और भक्‍ति के मूलतत्‍व को जानने का संकल्‍प लिया जाये ताकि मैं, मेरा मान-अभिमान, मेरा सुखदुख, मेरा अपमान, मेरे अपने से निकल सर्वत्र ईश्‍वर को देख पाने का भाव जाग सके। हनुमान के माध्‍यम से परमात्‍मा ने यह संदेश हमें दिया कि जब भगवान शिव की प्रचंड रौद्र शक्‍ति को मानवीय हित के लिए प्रयुक्‍त करना हो तो उसके लिए ‘सोऽहमस्मि’ तक की यात्रा करना ज़रूरी है ताकि विश्‍व कल्‍याण की बात सोची जा सके।
- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

मदांध नेताजी की 'गलती'

जब व्‍यक्‍ति मदांध हो जाता है तो उसे वही सब सच लगता है, वही सब सही लगता है जो वह और उसके चाटुकार सोचते हैं व करते हैं।  सब अपनी-अपनी सोचों के सिक्‍के सार्वजनिक तौर पर खर्चने में लगे हैं, फिर चाहे वो सोच खोटी ही क्‍यों ना हो । और तो और सभी मदांध यह बताने में पूरी तिकड़म लगा देते हैं कि बस वो ही सही कह रहे हैं, बाकी लोगों का कथन गलत व गैरमतलब है।
कल मुरादाबाद की चुनाव रैली को संबोधित करते हुये समाजवादी सुप्रीमो मुलायम सिंह ने अपनी विध्‍वंसक और गिरी हुई विचारधारा का वो आखिरी मुकाम भी पार कर लिया जिसकी 'प्रत्‍यक्ष' रूप से शुरुआत उन्‍होंने संसद में पेश किये गये महिला आरक्षण बिल के खिलाफ बोलकर की थी । कल की रैली में उन्‍होंने शक्‍तिमिल के बलात्‍कारियों को लगभग क्‍लीनचिट देते हुए कहा कि लड़के हैं, गलतियां हो जाती हैं। पहले लड़के-लड़की साथ रहते हैं, फिर मतभेद हो जाने पर लड़की रिपोर्ट लिखा देती है कि मेरे साथ रेप किया...हम सरकार में आने के बाद ऐसे कानूनों पर फिर से विचार करेंगे''
 द्रौपदी को नारी शक्‍ति का पर्याय मानने वाले डा. राम मनोहर लोहिया की जन्‍मशती के अवसर पर भी खुद को लोहियादूत कहते रहे मदांधता के शिकार मुलायम सिंह ने कहा था कि महिला आरक्षण बिल का फायदा केवल बड़े उद्योगपतियों और अफसरों के परिवार की लड़कियां-महिलायें उठायेगीं जिन पर लड़के पीछे से सीटी बजायेंगे ।
कहते हैं ना कि जो संस्‍कार घर से मिले होते हैं, वो आजीवन व्‍यक्‍ति के आचरण में झलकते हैं। मुलायम सिंह की ये सोच निश्‍चित ही उनकी महिला विरोधी मानसिकता वाले असली चेहरे को एकबार फिर हमारे सामने ले आई है।  इससे पता लगता है कि वो किस परिवेश से आये हैं और महिलाओं के लिए उनके मन में क्‍या क्‍या पल रहा है।
ज़रा सोचिए जो व्‍यक्‍ति स्‍वयं को प्रधानमंत्री बनते देखने का स्‍वप्‍न पाले बैठा हो, पूर्व में भी रक्षा मंत्री जैसा उत्‍तरदायित्‍व निभा चुका हो, उसके मुंह से बलात्‍कार जैसे घिनौने शब्‍द को मात्र गलती बता देना...उसके पूर्व के और आने वाले दिनों के भी मंतव्‍य को भलीभंति प्रकट कर रहा है ।
अच्‍छा हुआ कि इन चुनावों में सबके आडंबर उधड़ रहे हैं ...हमें बता रहे हैं कि  बलात्‍कारियों से किसी भी तरह कम नहीं हैं  ऐसे अपराधी भी जिनके लिए जघन्‍य अपराध मात्र एक गलती है..बस । बलात्‍कारी तो मानसिक-शारीरिक रूप से चोट पहुंचाते हैं किंतु बलात्‍कारियों के इन हिमायितियों ने तो आधी आबादी के पूरे वज़ूद को ही मार डाला । कहीं ये स्‍वयं भी  ऐसी ही किसी गलती का नतीजा तो नहीं...क्‍या पता इसीलिए इस उम्र में भी प्रधानमंत्री पद की भीख मांग रहे हों कि बस एक बार बनवा दो...एक बार बनवा दो पीएम ताकि मैं जो दबी कुंठाएं हैं, उन्‍हें भी पूरा कर लूं । जुबान ने तो कब का साथ छोड़ दिया...मगर शरीर की अन्‍य इच्‍छाएं जस की तस कुत्‍सित हैं...।
उत्‍तर प्रदेश में कुल 14 करोड़ मतदाता हैं जिनमें 6 करोड़ 70 लाख महिलाएं हैं, ऐसे में ऐन चुनाव के वक्‍त मुलायम सिंह अपनी घृणित सोच से किसे खुश करना चाह रहे हैं, यह समझ से परे है। निश्‍चित ही इससे वोटबैंक में कोई इज़ाफा नहीं होने वाला मगर मदांधता इस कदर हावी है उन पर कि उन्‍हें उत्‍तर प्रदेश की कानून-व्‍यवस्‍था का बदहाल दिखाई नहीं दे रहा । उन्‍होंने तो स्‍वयं बता दिया कि वो दिमागी रूप से कितने  दिवालिया हैं ...उन्‍होंने जता दिया कि जब हम एक खास समुदाय के हिमायती बनकर उन्‍हें जेलों से रिहा करवाने की गोटी खेल सकते हैं तो बलात्‍कारियों को बेकसूर घोषित क्‍यों नहीं करवा सकते...अब समझ में आ रहा है कि समाजवादी पार्टी इतनी अराजक क्‍यों है ।आखिर इतनी गिरी हुई मानसिकता वाला व्‍यक्‍ति उस पार्टी का मुखिया जो है।
अभी तो चुनावों के दो चरण ही हुये हैं उत्तर प्रदेश में, अधिकांशत: बाकी हैं। बहरहाल, इतना तो पक्‍का है कि निश्‍चित ही बलात्‍कार को महज गलती बताने वाले और अपने बच्‍चों से भी 'नेता जी'  कहलवाने वाले इन महाशय ने इसका ख़मियाजा पार्टी को सौगात में दे दिया है।
- अलकनंदा सिंह

समर शेष है

आज बड़ी शिद्दत से रामधारी सिंह दिनकर की वो पंक्‍तियां याद आ रही हैं जो उनकी कविता ''समर शेष है '' में उद्धृत की गई हैं-
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

आज जो तमाशा राजनीति में चल रहा है, उसने यह अच्‍छी तरह बता  दिया है कि हमाम के भीतर सबके सीन बेशक अलग-अलग हैं मगर हर सीन पर तालियां पीटने वाले चाटुकार एक जैसे हैं। सांप-बिच्‍छुओं की किस्‍में भले ही भिन्‍न-भिन्‍न हैं मगर उनकी विष वमन करने की फ़ितरत एक समान हैं। देर है तो बस मौका मिलने की। जिनके हाथों में हम अपना वर्तमान और भविष्‍य सौंपते आये हैं, चुनावों की वजह से ही सही, उनकी असलियत तो सामने आ ही रही है।
आज तक हम इनके बयानों को महज पॉलिटिकल स्‍टंट कह कर कन्‍नी काटते रहे हैं और अपने बचाव के लिए सुविधा अनुसार कोई ना कोई बहाना भी ढूढ़ते रहे हैं, लेकिन हमारा यही बरताब आज इन राजनीतिक स्‍थितियों का जिम्‍मेदार है। यदि ऐसा नहीं होता और हम तटस्‍थ भाव से मूकदर्शक ना बने रहते तो ...तो... बीते 66 सालों में इन्‍हें कितनी बार आइना दिखा चुके होते। खुदमुख्‍़तारी हमें थर्ड जेंडर यानि 'तीसरे' की तरह व्‍यवहार करने की अनुमति नहीं देती मगर हम ऐसा ही करते आये हैं । खुदमुख्‍़तारी को कोने में धकेलकर थर्ड जेंडर की तरह तालियां पीटना और तटस्‍थ रहकर रोते रहना... यदा-कदा नेताओं को गरियाते रहना अथवा चुनावों के समय मतदान कर देना भर ही तो कर्तव्‍य नहीं है...इससे आगे भी हमें अपना रुख इन्‍हें बताना चाहिए था कि धर्म और जाति के नाम पर जितना खेल कर सकते थे, वह कर चुके ...अब और नहीं।
अभी तक तो ये लोकतंत्र का वास्‍ता देकर एक दूसरे को गरिया रहे थे , स्‍वार्थ की खातिर जोड़तोड़ करके पार्टियां बदल रहे थे...मगर अब तो हद ही हो गई है उस कुत्‍ता घसीटी की जिसमें इन्‍होंने उन जांबाजों को भी नहीं बख्‍शा जिन्‍होंने जान की बाज़ी लगाकर करगिल को पाकिस्‍तानी घुसपैठियों से आज़ाद कराया था। वे देश के रक्षक थे, वीर थे, वे ना हिंदू थे ना मुसलमान,वे किसी जाति-धर्म के खांचों में बंटकर नौकरी नहीं कर रहे थे। उन्‍हें धर्म विशेष का बताने वाले नेताजी तब कहां थे जब मुज़फ्फ़रनगर के कैंपों में औरतें और बच्‍चे बीमारी और ठंड से मर रहे थे । सुना है कि उन्‍होंने अपने दुश्‍मनों (मीडिया पर्सन्‍स) से रोना रोया है कि उन्‍हें वहां जाने नहीं दिया गया। अरे भई, इन्‍हें कोई ये बताये कि सरकार इनकी, फोर्स इनकी, सुविधाएं इनकी, कैंप में मरने वाले इनके अपने ...फिर इन्‍हें रोका किसने...ये निहायत वाहियात सफाई थी। 
कोई इन्‍हें ये भी बताये कि मतदाता भी कॉमनसेंस रखते हैं...यूं भी काठ की हांडी एक ही बार चढ़ती है। रही बात सेना को हिंदू, मुसलमान में बांटकर देखने की तो नेताजी के दिल में जो दबा था वही जुबां पर आया है। 
बहरहाल, किस्‍से तो ऐसी सोचों के बड़े लंबे हैं...अभी के लिए इतना ही कि इनके भड़काऊ भाषणों और दिमागी दिवालियेपन पर ध्‍यान न दिया जाए। मतदान के चरण शुरू हो चुके हैं, 16 मई को नतीजा सामने होगा...ध्‍यान दें तो इस बार पर कि तटस्‍थता जैसा अपराध अब और ना हो, 66 साल हमने ये सोचकर और चुप रह कर गुजार दिये कि कभी तो हवा बदलेगी...मगर अब और इंतज़ार नहीं, निर्णय करना होगा हमें ताकि स्‍वर्ण सिंघासनों पर कुंडली मारे बैठे...विषैली जुबान वालों का असली रंग हम जान सकें... फनों को कुचलने का इससे बढ़िया मौका और क्‍या होगा ...बिना भेद-भाव के ऐसे सभी तत्‍वों को सबक सिखाएं जो अलग-अलग पार्टियों और अलग-अलग मुखैटों की आड़ में घिनौना खेल खेलते आए हैं।
अंत में दिनकर की ही कविता एक बार फिर...

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

 

-  अलकनंदा सिंह