मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

कबूतरों की तरह आंख क्‍यों मूंदे रहें हम ?

कल पूरा दिन 16 दिसंबर के बलात्‍कार कांड पर जिस तरह कैंडल मार्च और बयानबाजी की होड़ सी लगी रही उसने महिला सुरक्षा से संबंधित एक साथ कई बिन्‍दुओं पर सोचने को विवश कर दिया। मैं पूरे दिन, दिन के उजाले में निकाले जाने वाले कैंडल मार्च देखती रही, उनमें घटना की गंभीरता से कतई अनजान हंसते-खेलते लोगों को देखा, इलेक्‍ट्रोनिक मीडियाई बहस में शामिल होने वाली शख्‍सियतों को देखा, अपने गांव से लेकर दिल्‍ली तक मकान, रोजगार व अन्‍य सुविधाभोगी वस्‍तुओं को राज्‍य व केंद्र सरकार की अनुकंपा से जुटाने वाले मां- बाप के आंसुओं में सराबोर कहानी देखी व सुनी...बड़ा अजीब था सब-कुछ, एकदम घालमेल हुए जा रहे थे सारे सीन।
इस पूरे दिन के आक्रोष और अपनी-अपनी तरह से भावनाओं को कैश करते लोगों के बीच गायब होती जा रहीं वो घटनायें भी मुझे साल रहीं थीं जिनका ग्राफ मेरे सामने था, यह बताने के लिए कि आज हम किसी बलात्‍कार को किस तरह लेते हैं, यह मात्र एक घटना बनता है या इससे भी इतर कुछ और सोचने पर बाध्‍य करता है, क्‍या यह लिंगानुपात के गड़बड़ाने का ख़ामियाजा है जिसे औरतें-लड़कियां चुका रही हैं या कानूनी और सामाजिक जवाबदेही को आईना दिखा रहा था।  
इसी संदर्भ में एक रिपोर्ट पढ़ रही थी जिसे न्‍यूज एजेंसी रायटर्स के माध्‍यम से हाल ही में लंदन की कानूनी सहायता देने वाली संस्‍था ''TrustLaw (www.trust.org/trustlaw)'' संस्‍था द्वारा 'महिला सुरक्षा' की बावत, एक सर्वे के रूप में जारी किया गया।
इसमें ''महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक'' देशों की श्रेणी में भारत को  अफगानिस्‍तान- कांगो- पाकिस्‍तान के बाद चौथे नंबर पर रखा गया है। सर्वे का आधार भ्रूण हत्‍या से लेकर जघन्‍य बलात्‍कार तक होने वाले अपराधों की संख्‍या को बनाया गया है।
गौरतलब है कि TrustLaw ने सिर्फ सरकारी व अधिकृत आंकड़ों को ही अपने सर्वे का आधार का आधार बनाया है। इनमें वो आंकड़े और हकीकतें शामिल नहीं हैं जो तमाम कारणों से सरकारी फाइलों तक पहुंच ही नहीं सके। TrustLaw ने पूर्व गृहसचिव मधुकर गुप्‍ता से प्राप्‍त अधिकृत जानकारी के आधार पर दर्ज़ किया कि करीब 100 मिलियन (दस करोड़) महिलायें प्रतिवर्ष ह्यूमन ट्रैफिकिंग में झोंक दी जाती हैं तो दूरदराज़ के गांवों से शहरों में मजदूरी और घरेलू नौकरी का लालच देकर लाई गई तमाम बच्‍चियां और औरतें वेश्‍यालयों के हवाले कर दी जाती हैं, यदि उन्‍हें सामाजिक संगठन छुड़ा भी लें तो उनके ही परिवारीजन उन्‍हें स्‍वीकार नहीं करते । सर्वे रिपोर्ट में बालिग होने से पूर्व ही शादी और भ्रूण हत्‍या के ज़रिये गायब हुई लड़कियां तो पूरी महिला-आबादी का 44.5% बतायी गईं। विश्‍व में हम चाहे कितनी भी तरक्‍की का ढिंढोरा पीट लें मगर इस सर्वे से इतना तो ज़ाहिर हो ही गया कि देश में महिलाओं की स्‍थिति व उनकी सुरक्षा को लेकर विश्‍वभर में हमारी छवि सवालों के घेरे में आ गई है।
नैतिकता की बात तो सामाजिक स्‍तर पर इतना पीछे धकेल दी गई है कि आज घर में ही माता पिता अपने बच्‍चों, खासकर बेटों को, रिश्‍तों की अहमियत नहीं बता पाते। संस्‍कारों की बात को पिछड़ेपन की निशानी और इमोशंस को टैक्‍नोलॉजी के सहारे छोड़ा जाना महिलाओं के लिए जानलेवा बन गया है। अब अकेली निर्भया ही क्‍यों, आसाराम बापू..नारायण साईं...से लेकर तरुण तेजपाल व जज अशोक गांगुलिओं से पीड़ितों की...लंबी फेहरिस्‍त है जिन्‍होंने 'शिकारियों' समेत नैतिकता और समाज के सारे स्‍थापित नियमों का वो चेहरा सामने ला दिया है जिससे घिन आती है। बहरहाल, इसका इलाज भी खुद हम ही ढूढ़ सकते हैं। इसका हल कैंडल मार्च और आंसुओं भरी दासतां से अब आगे बढ़ना चाहिये। बस ।
इसका इलाज ढूंढने के लिए एकबार हमें फिर उस सनातनी दौर में लौटना होगा जिसने धर्म को साथ लेकर बड़े ही वैज्ञानिक और सामाजिक तरीकों से इंसानी मनोदशा का न केवल अध्‍ययन किया बल्‍कि हर समस्‍या का सहज व सरल उपाय भी दिया। सनातन धर्म में निहित संस्‍कारों की बुनियाद को जब से हमने खोखले आदर्श बताकर खारिज करना शुरू किया है तभी से हम सामाजिक विकृतियों के शिकार हो रहे हैं। यकीन न हो तो थोड़ा सा समय निकाल कर उस ओर मुड़कर देखिए.....यक़ीनन सच्‍चाई का अहसास जरूर होगा...और उन खामियों का भी जिनका बड़ा खामियाजा आधी आबादी को भुगतना पड़ रहा है।

- अलकनंदा सिंह

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