बुधवार, 19 जून 2013

तिनका कबहुं ना निंदिए...

संस्‍कृत में एक लघुसूक्‍त है- ''अति सर्वत्र वर्जय्ते''। मॉडर्न साइंटिफिक
समय में तरक्‍की के सारे सोपानों को आज भी धता बताने के लिए
संस्‍कृत भाषा का उक्‍त लघुसूक्‍त काफी है।
हजारों साल पहले लिखे गये इस सूक्‍त वाक्‍य की महत्‍ता हमें पल-पल दिखाई देती है मगर कभी कभी बतौर जुमला पेश करके इसे हम परे हटाते रहते हैं।
अब देखिए ना पूरे उत्‍तर भारत में इसी 'अति' ने अपनी 'वर्जना' के
स्‍वरूप हमें दिखाये। इसी अति के चलते विकास के नाम पर प्रकृति का
किया गया अपमान हमें कितना भारी पड़ रहा है, जान व माल का जो
नुकसान हुआ सो अलग। हमने वन संपदा भी भारी मात्रा में पानी में
बहते देखी, विकास के दावों की प्रकृति ने किस बेरहमी से हवा
निकाली...इस पर अब डिस्‍कशन की जरूरत ही नहीं रह गई । फिलहाल
तो पूरा उत्‍तर भारत इसी ''अति सर्वत्र वर्जय्ते'' का दंश झेलने को विवश
है।
हमारी सनातनी परंपरा में जिस शिव तत्‍व और प्रकृति का उल्‍लेख
जीवनशैली और इसे जीने की कला से जोड़ा गया है उसे कुछ मूर्तियों में
समेटकर यदि हम यह सोचते हैं कि बस हो गया कर्तव्‍य निर्वाह.. हो गई
शिवाराधना और सहेज लिया देवी प्रकृति को... तो प्राकृतिक तबाही का
मौजूदा रूप हमें इसे अब तो शायद ही भूलने दे। गाद और सिल्‍ट से
भरा पूरा उत्‍तर भारत इनसे उठने वाले प्रश्‍नों को मरने ही नहीं देगा।
यूं तो एक बात और गौर करने वाली ये है कि आस्‍तिक और नास्‍तिकों
में ईश्‍वर के रूप और अस्‍तित्‍व को लेकर कितनी भी बहस चले मगर
प्रकृति के द्वारा बार-बार दिये जा रहे संदेश सभी बहसों से ऊपर हैं। तभी
तो कहीं केदारनाथ मंदिर इतने बड़े कहर में भी शेष रह जाता है और
कहीं हरिद्वार में गंगा के बीच बनी शिवमूर्ति बह जाती है।
कबीरदास ने प्रकृति के कण-कण में और तिनके-तिनके में व्‍याप्‍त ईश्‍वर तत्‍व को ठीक से पहचानते हुए ही तो कहा था-
तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥
यानि हमें प्रकृति के एक-एक तिनके का आदर करना चाहिये और अगर
इससे चूके तो यही तिनका कब आंखों में पड़कर पीड़ा दे जाये, कहा नहीं
जा सकता। कबीर का ये दोहा तो महज एक तिनके के बारे में
था...हमने तो अपनी व्‍यवस्‍था के जरिये पूरी प्रकृति को ही प्रतिस्‍थापित
करने का पाप किया है। इसका भुगतान कोई तो करेगा ही।
नतीजा हमारे सामने है मौजूदा कहर के रूप में...कि हमारी औकात
बताते हुए न तो उसने विकास परियाजनाओं को बख्‍शा और न ही
इसका लाभ लेने वालों को...
क्‍या अब विकास के मॉडल की समीक्षा नहीं की जानी चाहिये। उसे नए
सिरे से परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। हमने, हमारे समाज ने,
हमारी सरकारों ने विकास के वर्तमान मॉडल को तरक्‍की का नया पैमाना बनाकर पेश करते हुए ये तो ध्‍यान में ही नहीं रखा कि जिनके लिए ये तरक्‍की के सोपान रचे जा रहे हैं वो ही नहीं होंगे तो....इसे भोगेगा कौन।
बहरहाल उत्‍तराखंड, हिमांचल और पड़ोसी देश नेपाल में नदियों की
विकरालता हमारी ही रची हुई है और इसे संभालना भी हमें ही होगा,
चिंतन और मनन तो बहुत हो चुका अब कुछ मिल-जुलकर करने की
बारी है। हर मसले के लिए सरकारों पर निर्भरता अच्‍छी नहीं। कुछ
समाज, जनता और प्रबुद्धों को भी आगे आकर इस तरक्‍की की सही
दिशा के लिए कदम उठाने होंगे। देखते हैं इस बार की आपदा अपने
साथ महज तबाही ही लाई या कुछ सबक भी...जो पुनरावृत्‍ति न होने दें।
यह याद रखने के लिए काफी होगा कि हम और हमारा वजूद प्रकृति से
है, न कि प्रकृति हमसे...नुमाया है।
- अलकनंदा सिंह

2 टिप्‍पणियां:

  1. अपने स्वार्थ में हम इतना डूबे हुए हैं की प्राकृति की चेतावनी को देख ही नहीं पाते ... हर कोई राजनीति के एक कोने में बंटा हुआ है ... सबसे पहले समाज में रहने वालों के चश्में बदलने होंगे ...

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  2. प्रगति के पीछे भागता मूढ़ मानव खुद देख ले अपनी करनी। जिन पहाड़ों से पानी की धार मैदानों में आकर जलप्रवाह का रूप लेती है, उन पहाड़ों पर ऐसा जलप्रलय। अलकनंदाजी आपका नामकरण ही इन पहाड़ों की एक नदी पर है , तो आप इनका मर्म और ज्यादा समझ पा रही हैं। बड़ा ही सारगर्भित लेख है आपका। देखें कितनों को समझ आती है हमारी-आपकी प्रकृति के ध्वंश पर शब्दों में उपजी यह पीड़ा ।

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